Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड
४८९ दिशा मिली होगी ? प्रत्युत्तर में निस्पृहयोगी ने फरमाया – “भाई ! कर्तव्य करने के होते हैं, कहने के नहीं।”
जिनके स्वयं के मन में पक्षपोषण व साम्प्रदायिकता की भावना न हो, वह महापुरुष ही समाज को समत्व व एकत्व का संदेश दे सकता है। आपके जीवन में अनेक बार ऐसे प्रसंग आये जब अन्य परम्परा के असन्तुष्ट संत गुरुचरणों से विमुख हो आपकी सेवा में आये, पर आपने कभी उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया, वरन् समझा - बुझा कर सत्परामर्श देकर पुन: गुरु चरणानुयायी बनाया। मोहनीय के उदय से कभी किसी सम्प्रदाय का कोई संत कभी भटक गया तो हवा उड़ाने की बजाय पुन: श्रावकों का मार्गदर्शन कर उन्हें स्थिर ही किया व उन परम्पराओं का सम्मान व जिन शासन की गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखा। तभी तो सभी परम्पराओं के महापुरुषों का आपके प्रति अनन्य स्नेह व श्रद्धाभाव था। विपरीत परिस्थिति होने पर आपसे मार्गदर्शन, सहयोग व संरक्षण लेने में किसी को कोई संकोच नहीं हुआ।
आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आनन्द ऋषिजी म.सा. के एक शिष्य को रामपुरा चौकी से विहार करते समय सर्प ने डस लिया। आगे विहार करते आचार्य सम्राट को जानकारी दी गई तो नि:संकोच उन्होंने फरमाया - घबराने की बात नहीं, पीछे पूज्य श्री पधार रहे हैं, वे संभाल लेंगे। परस्पर कितनी उदारता ? आपके साधनानिष्ठ व्यक्तित्व पर महापुरुषों का भी कितना गहरा विश्वास ! कहना न होगा भगवन्त पधारे और स्मरण व ध्यान साधक ने कुछ ही मिनटों में उन संत को विषमुक्त कर दिया।
सं. २०१२ में भगवन्त का चातुर्मास अजमेर में था। आचार्य सम्राट् पूज्य आनन्द ऋषिजी म. सा. के कुछ संत । भी वहीं थे। दो संत अस्वस्थ हो गये। आचार्य सम्राट ने सतों को पत्र लिखवाया - "मेरे में और पूज्य श्री में कोई | भेद नहीं है , तुम उनकी सेवा में रहकर स्वास्थ्य - लाभ करके आओ।”
जप साधक गुरुदेव के जीवन की बुजुर्गों से सुनी हुई घटना है। जयपुर में एक सम्प्रदाय के विशिष्ट पद वाले महापुरुष का एक संत रात्रि में गायब हो गया। खोजबीन प्रारम्भ हुई। संत के संयम-जीवन व संघ की प्रतिष्ठा का सवाल था। श्रावकगण पूज्यपाद की सेवा में पहुँचे, निवेदन किया । ध्यान योगी आचार्य भगवन्त ने ध्यान के बाद कन्दीघर भैरूजी के रास्ते में मिलने का संकेत फरमाया। श्रावकगण पहुँचे व पुन: उसे गुरु चरणों में संभलाया। ध्यान की कैसी एकाग्रता । सामान्य जन जैसे रील में देखते हैं, आचार्य भगवन्त को ध्यान में वैसे दृष्टिगोचर हो जाता था। ध्यान-साधना से जिनकी ग्रन्थियों का छेद हो जाता है , वह महासाधक ही साधना की ऐसी उच्च स्थिति को प्राप्त कर सकता है।
महापुरुषों का दर्शन, वन्दन व समागम ही संकटनाशक बन जाता है। उन महापुरुष का व्यक्तित्व ही ऐसा महिमामय था, साधना ही ऐसी अत्युच्च कोटि की थी, उनके सान्निध्य के परमाणु पुद्गल ही इतने पवित्र थे, उनका आभा मंडल ही इतना दिव्य देदीप्यमान था कि मानव की तो बिसात ही क्या? सुर असुर कृत बाधाएँ भी टिक नहीं पाती थीं। संकटग्रस्त भक्तों का सहज समाधान हो जाता था। मैंने स्वयं साधक जीवन में उनके सान्निध्य में रहते हुए | अनेक भक्तों को, जिन्होंने जीवन की, संकट मुक्ति की सभी आशाएँ छोड़ दी, सहज ही संकट मुक्त होते देखा है।। __मैंने उन ज्ञान सागर साधना सुमेरु गुरु भगवन्त को चर्म चक्षुओं से जो देखा है, उसका अंश मात्र कह पा रहा | हूँ। एक प्रवचन क्या, समग्र जीवन ही उन ज्ञान सागर के बारे में बोलता रहूँ तो भी बोलना शेष ही रहेगा। ज्ञान चक्षुओं से उन महापुरुष के अन्तर गुणों का अवलोकन अतिशय ज्ञानियों के सामर्थ्य का विषय है।