Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं लिये जो निद्रा का समय है, उन आत्मयोगी महापुरुष के लिए वह निर्जरा का समय होता था। संसारी जन दिन में भी सुखपूर्वक विश्रान्ति के लिए ही तो यत्न शील रहते हैं, पर महापुरुष तो रात्रि में भी आत्मा के अनन्त प्रकाश के प्रकटीकरण के लिये यत्नशील रहते हैं। जागरमाणा उन महामनीषी के लिए रात्रि भी दिन के समान ही थी।
श्रमण भगवान का कथन “देवावि तं नमंसन्ति जस्स धम्मे सया मणो” भगवन्त के जीवन में साकार देखा। जिनके मन में धर्म रम गया है, उन दृढ संयमी श्रमण भगवन्त के चरणों में देवता भी झुकें तो आश्चर्य क्या? अनन्तपुरा आदि अनेक स्थानों पर उन पूज्यपाद के पावन पदार्पण व प्रभावक प्रेरणा से पशु बलि बन्द हो जाना जैसे अनेक उदाहरण उनके साधनानिष्ठ जीवन के प्रबल प्रभाव बताते हैं । अहिंसा , संयम एवं तप से भावित रत्नाधिक महापुरुषों के लिये न कोई भय है, न उनके जीवन में स्व पर का कोई भेद है और न ही कोई खेद । “अहिंसा प्रतिष्ठायां वैरत्याग:", जिनके रोम-रोम में दया का वास हो, प्रत्येक प्राणी के कल्याण की ही कामना हो, उन अभय के देवता से भला किसका वैर हो सकता है , नागराज एवं अरण्य के राजा सिंहराज भी नत-मस्तक हो जायें तो भला आश्चर्य क्या ? भव-भव से संचित कर्म शत्रु भी तो उनकी आत्मा के पुरुषार्थ या सिंहनाद के समक्ष कहाँ टिक पाते हैं। अलवर के विहार क्रम में मैं साथ था। रात्रि में शेर की दहाड सनी, पर शेर जैसे आया, वैसे चल दिया।
षट्कायप्रतिपालक महापुरुष स्वयं तो निर्भय होते ही हैं, अपने संसर्ग , सान्निध्य में आने वालों के लिये भी अभयप्रदाता बन जाते हैं। सं. २०२२ में आचार्य भगवन्त का बालोतरा चातुर्मास था। मेरी दीक्षा का दूसरा वर्ष था। उस समय भारत-पाकिस्तान की लड़ाई का प्रसंग आया। भगवन्त उस समय श्रमण संघ में उपाध्याय थे। आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी ने पूज्य गुरुदेव श्री हस्तीमलजी महाराज के लिए लिखवाया कि ऐसी स्थिति में कभी स्थान बदलना पड़े तो आप स्थान बदल लें। उस लड़ाई में बाडमेर से वायुयान बालोतरा होकर जोधपुर जाते । वायुयानों की गड़गड़ाहट सुनी जाती, बम गिरते। कुछ बम जोधपुर से पहले भी गिरे, जोधपुर में सैकड़ों बम गिरे, लेकिन नुकसान नहीं हुआ। आचार्य सम्राट के समाचार आने पर भी भगवन्त ने स्थान नहीं बदला, निर्भयता से वहीं चातुर्मास किया।
संयमनिष्ठ महापरुष कभी चमत्कार नहीं दिखाते। ऋदियाँ सिद्धियाँ व चमत्कार तो उनके अन उनका जीवन स्वयं चमत्कार बन जाता है। स्वयं भगवन्त से पीपाड़ में सुना - बारह वर्ष तक यदि कोई 'तच्चित्ते तम्मणे' होकर सत्य भाषण व सद् आचरण करे तो उसे वचन सिद्धि हो जाती है। निर्मल मतिश्रुत के धारक उन महामनीषी के अल्प संभाषण में भी भक्तों को भविष्य का सहज संकेत मिल जाता था। श्रद्धालु भक्त जन आने वाली विपत्तियों का आभास पा श्रद्धावनत हो जाते।
समत्व साधक भगवन्त जहाँ जहाँ पधारे, वैषम्य दूर होता गया। सिवाञ्ची का विवाद जो कई सन्त-महापुरुषों की प्रेरणा से न सुलझ पाया, धड़ेबन्दी भी इतनी मजबूत कि घर आया जामाता भोजन नहीं करे, राखी बांधने आई भगिनी भाई के घर का पानी भी नहीं पीये। परस्पर विभेद इतना कि विवाद का निपटारा करने बैठे पंच भी एक जाजम पर बैठने को तैयार नहीं, लूनी नदी से रेत मंगाकर उस पर बैठे। सामाजिकों के मन में कैसी गहरी खाई ? सामायिक के आराधक आचार्य भगवन्त का समत्व का सच्चा संदेश सिवांचीवासी भाइयों के गले उतरा और वहां | जन-जन में स्नेह सरिता प्रवाहित हुई। समदड़ी, किशनगढ़, बालेसर आदि अनेक स्थानों पर समाज में व्याप्त धड़ेबंदी व कलह के बादल आपके पावन पदार्पण व प्रेरणा से छंट गये।
एक बार मैंने भगवन्त से पूछा –“भगवन् ! आपके उद्बोधन से अनुमानत: कितने व्यक्तियों के जीवन को नई