Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं उन्हें सेवा के महत्त्व को समझाते हुए सेवा की कला का ज्ञाता बनाना चाहिये और जो साधक तप की ओर बढना चाहते हों, अपना तप:पूत जीवन व्यतीत करना चाहते हों उन्हें तप में मनोबल बढ़ाने एवं बाह्य आडम्बर से अलग-थलग रहने को उत्प्रेरित करना चाहिये। उन्हें रत्नावली, कनकावली और वर्धमान तप की भांति, रस-त्याग आदि तपविधि का परिज्ञान कराया जाना चाहिए। लेखक और विज्ञों के लिए भाषा ज्ञान के साथ ही विविध आगम-शास्त्रों का तुलनात्मक ज्ञान कराना अपेक्षित है। प्रमुख प्रवर्ताओं को देश, विदेश की स्थिति का, स्वमत व अन्यमतों का तथा न्याय, दर्शन, साहित्य का अध्ययन कराया जाय और साथ ही उन्हें भाषण-कला प्रवीण भी बनाया जाय। सेवा, तपस्या, लेखन, भाषण और ध्यान की यह पंचसूत्री योजना कार्यान्वित हो जाय तो मैं समझता हूँ कि साधना में एक नया मोड़ आ जायेगा। आर्यावर्त के महामानव भगवान महावीर ने जीवन की सांध्य वेला में उत्तराध्ययन सूत्र के छब्बीसवें अध्ययन में समाचारी का जो रूप प्रस्तुत किया है वह निराला है। पच्चीस सौ वर्षों का दीर्घ काल व्यतीत हो जाने पर आज भी वह सर्चलाइट के रूप में चमक रहा है उसी को आधार मानकर हमें समाचारी का रूप निश्चित करना चाहिए। प्रथम प्रहर में प्रतिलेखन (मौन) स्थंडिल और स्वाध्याय करनी चाहिए। द्वितीय प्रहर में शिक्षा (प्रवचन और पठन)| भिक्षा और पन्द्रह मिनिट ध्यान करना चाहिये। तृतीय प्रहर में नवीन वाचन, लेखन और प्रश्नोत्तर होने चाहिये।
चतुर्थ प्रहर में प्रतिलेखन, समाज चर्चा, स्थंडिल और आहार आदि होने चाहिए। • रात्रि के प्रथम प्रहर में प्रतिक्रमण के पश्चात् स्तुतिपाठ, आधे घंटे तक प्रश्नोत्तर, स्वाध्याय और एक घंटे तक
ध्यान करना चाहिये। द्वितीय प्रहर में ध्यान के पश्चात् निद्रा और चतुर्थ प्रहर में ध्यान, स्वाध्याय और प्रतिक्रमण करना चाहिये। सहस्र रश्मि सूर्योदय के समय प्रभु-प्रार्थना करनी चाहिए। जीवन का मूल उद्देश्य साधना है। साधना-विहीन जीवन प्राण रहित कलेवर के समान है, जो चलता नहीं सड़ता है। साधना की सड़क पर मुस्तैदी से कदम बढावें, अपने जीवन को त्याग, वैराग्य और संयम के रंग में रंगें, तभी जीवन उज्ज्वल है एवं भविष्य प्रकाशमान है। । साधु-साध्वियों के लिए संघट्टा जैसी चीज़ साधारण दिखने पर भी अपने में बड़ा महत्त्व रखती है। जाजम के एक किनारे पर बैठे हुए स्त्री पुरुष का संघट्टा साधारण दृष्टि से हानिकर नहीं दिखता, परन्तु यह मर्यादा का अतिरेक भी हमें संसर्ग दोष से बचने की प्रबल प्रेरणा प्रदान करता है। ऐसे साधारण नियमों को समझकर अवहेलना नहीं करनी चाहिये । आत्म-शुद्धि के लिए जैसे कषायों के उपशम एवं क्षपण की आवश्यकता है, वैसे कषाय-विजय के साधन रूप से आहार शुद्धि आदि बाह्य मर्यादाओं की भी आवश्यकता है। उत्तराध्ययन सूत्र में मोक्ष का स्वरूप बतलाते हए शास्त्रकार ने कहा है कि ज्ञान का सम्पूर्ण प्रकाश करने, अज्ञान व मोह का निवारण करने और राग-द्वेष का क्षय करने से एकान्त सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। वहाँ पर सम्पूर्ण राग-विजय का मार्ग बतलाते हए गरु-वृद्ध की सेवा और स्वाध्याय के साथ एकान्त सेवन एवं धैर्य धारण रूप मार्ग कहा है। वीतराग भाव की प्राप्ति हेतु वहाँ उपाय रूप से कुछ बाह्याचारों की ओर भी लक्ष्य रखने का संकेत किया है। ज्ञान, ध्यान, सद्भावना आदि अन्तरंग साधनों की तरह आहार-विहार, वेश-भूषा, साहित्य और संगति का भी मन पर बड़ा असर होता है। • रसों का अत्यधिक सेवन करने से राग की वृद्धि होती है और रागी को कामनाएँ घेर लेती हैं। इसी प्रकार स्त्रियों