Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
किन्तु हरेक व्यक्ति अपने देश या समाज का मुखिया, नायक एवं नेता नहीं बन सकता । • हृदय की संकीर्णता उदारता में, हठधर्मिता को सहिष्णुता में पलटने से जब विचारों में सार बुद्धि पैदा होकर विचार-सहिष्णुता आ जाती है तब मनुष्य दूसरों के विचार से अपने विचार को मिला कर आगे बढ़ता है और देश तथा समाज का कल्याण-विधाता या नव निर्माता बनता है । यह है धर्म नीति पर चलने का मंगलमय परिणाम ।
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• दश बीस ही नहीं, शत सहस्त्र सम्प्रदायें भी क्यों न हों, तुम घबराओ नहीं। हृदय को उदार बना एक दूसरे को समझने की कोशिश करो। भ्रातृत्वभाव बढाओ । प्रेम का वातावरण तैयार करो । क्षमा से हृदय को लबालब भर लो, फिर देखो सम्प्रदाय रह कर भी सम्प्रदायवाद का जहर दूर हो जायेगा। आज की सम्प्रदायों में जो भयंकर जुदाई का, परायेपन का असर प्रतिभासित होता है वह तीव्र वायु वेग में बादल की तरह उड़ जायेगा और परस्पर के स्नेह सम्बन्ध से एक दूसरे की अभिवृद्धि होगी तथा शोभा बढ़ेगी।
■ साधर्मि- सेवा
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हजारों बछड़ों के बीच एक गाय को छोड़ दीजिये । गाय अपने ही बछड़े के पास पहुँचेगी उसी तरह लाखों-करोड़ों आदमियों में भी साधर्मी भाई को न भूलें ।
• आज लोग आडम्बर में, थोथे बाह्याडम्बरों में लाखों, करोड़ों की धनराशि खर्च कर देते हैं, जबकि दूसरी ओर समाज के लाखों भाई-बहन ऐसी कमजोर स्थिति वाले हैं, हजारों ऐसी विधवाएँ हैं, हजारों ही ऐसे होनहार बालक हैं, बालिकाएँ हैं, जो अभाव की स्थिति में बड़े ही कष्ट से अपना गुजर-बसर कर रहे हैं।
कोई भाई लखपति था, लेकिन विवाह आदि में अधिक खर्च गया और कर्जा हो गया, यह बात आपको साधर्मी भाई होने के नाते मालूम है, किन्तु इस बात को बाहर प्रकट करने में उसका व्यावहारिक रूप गिरता है तो आप उसकी कमजोरी प्रकट नहीं करें। इसके अतिरिक्त कोई साधर्मी भाई उदार है, व्रतधारी है, गुणी है, हजारों के बीच में बैठा है, लेकिन लोग उसको जानते नहीं हैं तो उसके गुणों की बड़ाई लोगों के सामने करके उसको चमकाना, उसके गुणों का अनुमोदन करना अभीष्ट हो सकता है ।
• जहाँ साधर्मी वात्सल्य है वहाँ किसी को देनदारी के कारण आत्महत्या करने का अवसर नहीं आयेगा, क्योंकि जागरूक समाज किसी व्यक्ति को दुःख के कारण मरने नहीं देगा, हर संभव उसकी सहायता करेगा । कोई भाई बीमार है तो उसके साथ सहानुभूति दिखाने से उसका आधा रोग चला जायेगा । तन से, धन से डिगने वाले को स्थिर करना आपका काम है । मन से, श्रद्धा से डिगने वालों को मजबूत करना हमारा काम है।
• जिस भक्ति - प्रदर्शन की रीति-नीति में स्वधर्मी भाइयों का कष्टनिवारण नहीं किया जाता, उनको वात्सल्य की दृष्टि से देखने का किञ्चित्मात्र भी प्रयास नहीं किया जाता और स्वधर्मी बन्धुओं के मुरझाये हुए मुख कमल प्रफुल्लित कर उन्हें धर्म-मार्ग में स्थिर नहीं किया जाता तो उस सारे बाह्याडम्बर को विडम्बना मात्र ही समझना चाहिये । संतों की प्राचीन वाणी ने ठीक कहा है
न कयं दीणुद्धरणं, न कयं साहम्मियाण वच्छल्लं । हिअयम्मि वीअराओ, न धारियो हारिओ जम्मो ॥
अर्थात्-सामर्थ्य शक्ति पाकर भी यदि दीनों का उद्धार नहीं किया, सहधर्मी भाइयों से वात्सल्य-प्रेम नहीं किया,