Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
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पढ़ना। यह स्वाध्याय का दूसरा अर्थ हआ। स्वाध्याय का एक और तीसरा अर्थ मैं आपके समक्ष रखता हूँ। वह तीसरा अर्थ करते समय 'स्वाध्याय' पद का पद-विभाग इस प्रकार करना पड़ेगा-'सु', 'आङ्' और 'अध्याय' । 'सु' का मतलब है सुष्ठु अर्थात् अच्छे ज्ञान का, 'आङ्' का अर्थ है मर्यादापूर्वक और 'अध्याय' का अर्थ है, | पढ़ना। तो इन तीन शब्दों से बने स्वाध्याय पद का अर्थ हुआ अच्छे ज्ञान का मर्यादापूर्वक ग्रहण करना, सु अर्थात् अच्छा ज्ञान इसलिए कहा है कि ज्ञान में दो भेद हैं, एक तो मिथ्याश्रुत अर्थात् मिथ्या ज्ञान और दूसरा सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग्ज्ञान । सम्यग्ज्ञान में केवल रोटी-रोजी कमाने का शिक्षण ही नहीं, बल्कि जीवन को बनाने का भी यथार्थ शिक्षण होता है।। यदि आप चाहते हैं कि समय-समय पर दिल में आने वाली तपन, काम-क्रोध, अहंकार की उत्तेजना आपको सता नहीं सके। यदि आप चाहते हैं कि हमारा परिवार संतुष्ट रहे, हम संतुष्ट रहें, सुखी रहें, यदि आप ऐसा संसार बनाना चाहते हैं जिसमें शान्ति, संतोष, सौहार्द, सहिष्णुता और सद्भाव का साम्राज्य हो, कलह, अशान्ति और अविश्वास का लेशमात्र न हो तो आपको अपने बच्चों को 'स्व' का अध्ययन कराना पड़ेगा, जिस 'स्व' को समझ लेने के पश्चात् सारी दुनिया फीकी प्रतीत होगी। इस 'स्व' तत्त्व को पा लेने के बाद आत्मा स्वस्थ, शान्त और निर्मल होगी। अगर ज्ञान प्राप्त करना है तो वह केवल शब्द से नहीं होगा। पोथी पढ़कर या शब्द रटकर कोई अपने को पर्याप्त मान ले तो वह सम्यग्ज्ञानी नहीं होगा। सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना है तो स्वाध्याय करो। स्वाध्याय से अपने आपको पढ़ो, अपने आप को सोचो। हमारे सामने हजारों समस्याएं हों, पर उन सबका समाधान मैंने स्वाध्याय और सामायिक में ही पाया। समाज सुधार की जितनी बातें हैं वे सब इन्हीं दो में निहित हैं । समाज में झगड़े क्यों होते हैं ? सम्प्रदाय में झगड़े क्यों होते हैं ? इनके पीछे भी मूल कारण यही है कि आज समाज में स्वाध्याय की प्रवृत्ति नहीं है। इन महाराज के यहाँ जाना और दूसरों के नहीं जाना, इस झगड़े का मूल अविद्या या अज्ञान है। उसे भी स्वाध्याय से समाप्त किया जा सकता है। आज विज्ञान के युग में संसार में विद्या बढ़ी है। उसके साथ ही साथ धर्म का ज्ञान और क्षेत्र भी बढ़ना चाहिए। पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों की संख्या बढ़ गई, लेकिन इसके साथ ही धर्म-ज्ञान या ज्ञान-साधना की पूर्ण व्यवस्था अपेक्षित है। हर युवक इस बात का संकल्प करे-'स्वाध्याय अवश्य करूँगा। चाहे घर में समय मिले, न मिले पर, जब तक स्वाध्याय नहीं करूँगा तब तक अन्न, जल नहीं लूँगा।' यदि स्वाध्याय को समाज धर्म बना लें
तो काम सरलता से हो सकता है। • आप में शक्ति नहीं हो, समझने का सामर्थ्य नहीं हो, ऐसी बात मैं नहीं मानता। आप में शक्ति है, सामर्थ्य है, हौंसला है, लेकिन आप अपनी शक्ति का उपयोग जैसा धंधे में करते हैं , वैसा धर्म-ध्यान या स्वाध्याय में नहीं करते। यदि दो-चार बार विलायत घूमना हो जाए तो विदेशी भाषा के शब्द ध्यान में रखोगे। जैसी उधर आपकी तवज्जह है, ऐसी यदि इधर हो जाए तो बेड़ा पार हो सकता है। जिस प्रकार व्यावहारिक ज्ञान के लिए स्वयं अध्ययन करने की जरूरत है, वैसी ही जरूरत आध्यात्मिक ज्ञान के लिए भी है। सीधा सा उदाहरण है। व्याख्यान हो रहा है, तब तक तो आपने हमारी बात सुनी, लेकिन घर जाने के बाद अपने आप पढ़ने का रास्ता किसी ने नहीं बनाया तो ज्ञान के प्रकाश से वंचित रह जायेंगे। जब तक स्वयं पढ़ने का अभ्यास नहीं करेंगे, तब तक ज्ञान का प्रकाश कैसे आयेगा? इसका यह मतलब नहीं है कि