Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४७८
श्रुत का वाचन तथा परावर्तन छूट गया तब श्रुतज्ञान की हानि हुई। आर्य भद्रबाहु के पश्चात् हमारा बहत विशाल श्रुतज्ञान इतना क्षीण हो गया कि अन्तिम वाचना के समय तो ११ अंगसूत्र भी पूर्ण रूप में नहीं रह पाये। इसका कारण शास्त्र की वाचना और परावर्तन का अभाव ही तो रहा है। विपाकसूत्र ग्यारहवां अंग शास्त्र
जो काफी बड़ा था, वह सबसे छोटा रह गया । इस श्रुतहानि का कारण शास्त्र की वाचना का अल्प होना ही है। • स्वाध्याय पाँच प्रकार के हैं, जैसे- (१) वाचना, (२) प्रतिपृच्छा, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मकथा।
सर्वप्रथम वाचना से ही स्वाध्याय का प्रारम्भ होता है। गुरुदेव से स्वयं शास्त्र का पाठ लेना, सुनना अथवा पढ़ना वाचना है। वाचना के पश्चात् शंकास्पद स्थल या भूले हुए पाठ को फिर पूछना प्रतिपृच्छा रूप स्वाध्याय है।। तीसरा, पढ़े हुए पाठ का पुनरावर्तन करना परिवर्तना स्वाध्याय है। चौथा है अनुप्रेक्षा । इसमें श्रुत या पठित तत्त्व ।। का चिन्तन करना-गहराई से विचार करना अनुप्रेक्षा है। चिन्तन के पश्चात् किसी दूसरे को उपदेश देना या समझाना धर्मकथा रूप स्वाध्याय है। दशवैकालिक सूत्र के नवम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में स्वाध्याय से होने वाले चार प्रकार के लाभों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है-(१) शास्त्र पढ़ने से श्रुतज्ञान का अपूर्व लाभ होगा, इसलिए मुझे शास्त्र पढ़ना चाहिए। (२) चंचल चित्त एकाग्र होगा इसलिए पढ़ना चाहिए । (३) सूत्र का अध्ययन करते समय अपने मन को स्थिर कर सकूँगा इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए। (४) स्वयं ज्ञानभाव में स्थिर होकर दूसरे की अस्थिर आत्मा को स्थिर जमा सकूँगा, उसके संदिग्ध मन को धर्म में स्थिर कर सकूँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। इस प्रकार श्रुत का पठन-पाठन, चिन्तन-मनन भी चित्त-समाधि का एक प्रमुख कारण है। स्थानांग सूत्र (५/४६८) का मूल पाठ इस प्रकार है:-पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं सिक्खेज्जा, तं जहा-णाणट्ठयाए, ' दंसणट्ठयाए चरित्तट्ठयाए, वुग्गहविमोयणट्ठयाए, अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीत्ति कट्ट। अर्थात्-पाँच कारणों से शास्त्र का शिक्षण लेना चाहिए , यथा (१) ज्ञानवृद्धि के लिए (२) दर्शन शुद्धि के लिए (३) चारित्रशुद्धि के लिए। (४) विग्रह मिटाने के लिए और (५) पदार्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए। • जीवन-निर्माण एवं आत्मोद्धार के लिए, समाज-निर्माण और राष्ट्र-निर्माण के लिए स्वाध्याय परमावश्यक है।
वस्तुतः स्वाध्याय भौतिक एवं आध्यात्मिक दुःखों को समूल नष्ट करने का एक अमोघ अस्त्र है। अतः सब भाई-बहनों और स्वाध्यायियों को प्रतिदिन नियमित रूप से स्वाध्याय करना चाहिए। चित्त बड़ा चंचल है। 'चित्त चित्तौड़े, मन मालवे, हियो हाड़ोती जाय' इस लोकोक्ति के अनुसार चित्त की चंचलता घट-घट के अनुभव की
बात है। यदि चित्त की चंचलता का निरोध करके साधना करनी है तो शास्त्रों का अध्ययन करें, स्वाध्याय करें। • स्वाध्याय के बिना त्यागी-विरागी उच्चकोटि के साधु और श्रावक नहीं मिल सकते। स्वाध्याय से ही चतुर्विध ।
संघ में ज्योति आ सकती है। • स्वाध्याय करने से एक बड़ा फल तो यह होगा कि उससे बुद्धि निर्मल हो जाएगी। घर-घर में जो लड़ाई-झगड़े, ।।
कलह-क्लेश और वैर-विरोध चल रहे हैं, उनकी दवा स्वाध्याय से ही मिलने वाली है। बुद्धि निर्मल होने से पाप ! नष्ट होंगे, पुण्य का बंध होगा, दया-कोमलता का उद्गम होगा एवं निर्दोष दान देने की भावना जगेगी। स्वाध्याय केवल दूसरों के ही कल्याण हेत, दूसरों के निर्माण हेतु या दूसरों को ही सुख प्रदान करने हेतु नहीं है, !! अपितु पहले वह स्व-अनुशासन, स्व- कल्याण और स्व-निर्माण की धारा लाकर फिर परहित में, समाजहित में, विश्वहित में साधन बनने वाली एक आंतरिक प्रबल शक्ति है। स्वाध्याय 'स्व' में निहित अमोघ शक्ति है।
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KIRIAnnu