Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं हँसते-हँसते जाता है और आनंदित होता है। हर मानव को ऐसी ही साधना करनी चाहिए और ऐसी तैयारी रखनी चाहिए, जिससे कि वह हँसते-हँसते इस संसार से प्रस्थान कर सके। जीवन सुधार से मरण सुधार होता है। जिसने अपने जीवन को दिव्य और भव्य रूप में व्यतीत किया है, जिसका जीवन निष्कलंक रहा है, और विरोधी लोग भी जिसके जीवन के विषय में अंगुलि नहीं उठा सकते, वास्तव में उसका जीवन प्रशस्त है। जिसने अपने को ही नहीं, अपने पड़ौसियों को, अपने समाज को, अपने राष्ट्र को और समग्र विश्व को ऊँचा उठाने का निरन्तर प्रयत्न किया किसी को कष्ट नहीं दिया मगर कष्ट से उबारने का ही | प्रयत्न किया, जिसने अपने सद्विचारों एवं सदआचार से जगत के समक्ष स्पृहणीय आदर्श उपस्थित किया, उसने अपने जीवन को फलवान बनाया है। इस प्रकार जो अपने जीवन को सुधारता है वह अपनी मृत्यु को भी सुधारने में समर्थ बनता है, जिसका जीवन आदर्श होता है उसका मरण भी आदर्श होता है। कई लोग समझते हैं कि अन्तिम जीवन को संवार लेने से हमारा मरण संवर जाएगा, मगर स्मरण रखना चाहिए | कि जीवन के संस्कार मरण के समय उभरकर कर आगे आते हैं। जिसका समग्र जीवन मलिन, पापमय और कलुषित रहा है, वह मृत्यु के ऐन मौके पर पवित्रता की चादर ओढ़ लेगा, यह संभव नहीं है। अतएव जो पवित्र जीवन यापन करेगा वही पवित्र मरण का वरण कर सकेगा और जो पवित्र मरण का वरण करेगा उसी का आगामी जीवन आनन्दपूर्ण बन सकेगा। सहिष्णुता/सर्वधर्म सहिष्णुता
संसार में ऐसे बहुत से लोग हैं, जो कहते हैं-"जो हमारे धर्म के विरोधी हैं, जो हमारी आराधना को, हमारी साधना को, हमारी भक्ति को और हमारे मन्तव्यों को नहीं मानने वाले हैं, उन लोगों को अगर मार दिया जाय तो कोई पाप नहीं होगा।" ऐसी मान्यता मानने वाले लोग संसार में बहुत हैं। ईसा को इसीलिए सूली पर चढ़ना पड़ा। लाखों लोग धर्म के नाम पर मानव के खून के प्यासे हैं। विदेशों में रंगभेद को लेकर आज भी आए दिन मानव द्वारा मानव का खून बहाने की अप्रिय घटनाएँ घटित होती हैं। लेकिन धर्म के नाम पर यह सब अनुचित होता
• आज के सार्वजनिक मत-भेद और झगड़ों का प्रधान कारण असहिष्णुता ही है। आज से पहले भी जैन, वैष्णव, मुसलमान आदि अनेक मत और वल्लभ, शाक्त, शैव, रामानुज आदि विविध सम्प्रदायें थीं, परन्तु उनमें विचार
भेद होने पर भी सहिष्णुता थी। इसी से उनका जीवन शान्ति व आराम से व्यतीत होता था। • गांधीजी ने अपने अनेक व्रतों में एक 'सर्वधर्म-समभाव' व्रत भी माना है। उसकी जगह 'सर्वधर्म सहिष्णुता' मान
लिया जाय तो उनके मत से हमारी एक वाक्यता हो सकती है। • विभिन्न धर्मों के मानने वाले अनेक मनुष्य प्रत्येक धर्म पर एकसा आदर भाव कभी नहीं रख सकते । कहने के
लिये भले ही, हम सब धर्म पर सम-भाव रखते हैं, यह कहकर अपना उदार भाव प्रगट करें, किन्तु जब तक आप में अज्ञानता, मोह और राग द्वेष हैं, समभावकी प्राप्ति कोसों दूर है और तब तक ऐसी प्रौढ़ उक्ति भी सच्ची नहीं हो सकती। आजकल लोग नेता ही बनना पसन्द करते हैं, चाहे नेतृत्व की शक्ति, गुण या क्षमता का लेश भी नहीं हो। सिपाही बनना कोई नहीं चाहता। बन्दूक धरने की अक्ल न रखते हुये भी सब जनरल ही बनना चाहते हैं।