Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
View full book text
________________
नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
४५८
. समाज-एकता • समाज पक्ष में आपको कारीगर बनना है, मजदूर नहीं। कैंची नहीं बनकर सुई बनना है। कैंची एक बड़े कपड़े को
काटकर अनेक टुकड़े कर डालती है, जबकि सुई अनेक बिखरे हुए टुकड़ों को सिलती हुई बढ़ती जाती है। ऐसे ही श्रावकों को अपने संघ में एकता लाने के लिए सुई की तरह व्यवहार करना चाहिए। इसके बिना जिनशासन का हित नहीं हो सकेगा। मानव जितना ही गुणग्राहक और सत्य का आदर करने वाला होगा, उतना ही ऐक्य निर्माण कार्य सरल एवं स्थायी हो सकेगा। 'कारणाभावे कार्याभावः' इस उक्ति के अनुसार भेद के कारण मिटने पर भेद स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं। चिमटी बजाते हैं तो अंगुली के साथ अंगूठा मेल करता है तभी चिमटी बजती है। मेल नहीं करें तो नहीं बज सकती। भीतर में जो क्रोध का जहर है, उस जहर को निकालकर उसके स्थान पर अमृत बरसाना है। अमृत बरसायेंगे तो
आपकी हृदय तंत्री से आवाज उठेगी—हम आग लगाना क्या जानें, हम आग बुझाने वाले हैं। • अहिंसक समाज और स्वाध्याय संघ के सदस्यों का तो संकल्प होना चाहिए कि कभी भाई-भाई में आपस में टकराव हो भी जाये तो भीतर में ही निपट लेंगे। इस उदाहरण के अनुसार चलेंगे तो बहुत प्रमोद होगा और हम समझेंगे कि महावीर की वाणी ने आप पर असर किया है। ऐसी दृष्टि रखकर चलने से लाखों के जीवन में
शान्ति उत्पन्न होगी। महावीर की वाणी का यही सार है। • समाज के लोग साथ बैठे हैं, कभी सभा, सोसाइटी या मीटिंग में एक दूसरे का मत नहीं मिले, एक-दूसरे के साथ
आपस में बोल-चाल का मौका आ जाय, क्रोध आ जाय, तेज बोल गए तो आपका कर्तव्य है कि आये हुए क्रोध को दबा दें, शान्त कर दें।
समाज-सुधार • सामूहिक जीवन में परिवर्तन लाने के लिये विशिष्ट प्रयोगों की आवश्यकता होती है, वहाँ एक कोने में बैठे रहने
से काम नहीं चलता। सार्वजनिक जीवन में सुधार करने की भावना वाला देखता है कि यह गंदगी इस तरकीब से दूर की जा सकती है। उदाहरणार्थ होली के अवसर पर लोग आमतौर से गंदी गालियां बकते हैं और गन्दे गीत गाते हैं। ऐसी स्थिति में सामूहिक चिन्तन वाला, सामूहिक शुभ चेतना देने वाला कोई तरुण या कोई संस्था उसका समुचित और सफल प्रतीकार सोचेगा। वह गन्दे गीतों की जगह नयी शैली के शुभ गीत जनता के समक्ष रखेगा। वह इस विचार के दस-बीस तरुणों को तैयार कर लेगा और जब दस-बीस हो जाएंगे तो अपनी टोली को और अधिक बढ़ा लेंगे। इस प्रकार एक दिन वे सामूहिक जीवन को नयी दिशा में मोड़ देने में समर्थ हो सकेंगे। हमारे स्थानवासी समाज में ऐसा कोई रूप नहीं है जिससे साधु-साध्वी देश-विदेश जाकर धर्म-प्रचार कर सकें, धर्म-ध्यान करा सकें। आज कई भाई कहते हैं कि साधुजी महाराज आप यहाँ क्यों बैठे हैं, विदेशों में जाओ और वहाँ धर्म का प्रचार करो। सभी काम हमसे करवाना चाहते हैं। समाज की सफाई का काम भी साधुओं से