Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
View full book text
________________
नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४५२ • जैसे साधारण गृहस्थ को आत्म-रक्षण एवं विकास के लिये नगर के सुप्रबंध की आवश्यकता है वैसे ही मोक्षमार्ग
के साधक को प्रमाद और कषायादि के वश साधना से स्खलना या उपेक्षा करने पर योग्य प्रेरणा की आवश्यकता रहती है, जो संघ में मिल सकती है। संघ में आचार्य आदि के द्वारा सारणा, वारणा और धारणा का लाभ मिलता रहता है। संघ के आश्रित साधुओं की रोगादि की स्थिति में संभाल की जाती है, ज्ञानार्थियों के ज्ञान में सहयोग दिया जाता है, अशुद्धि का वारण किया जाता है और शास्त्र-विरुद्ध प्ररूपणा को टालकर सम्यग् मार्ग की धारणा करायी जाती है। शिथिल श्रद्धा वालों को बोध देना और शिथिल विहारी को समय-समय पर |
प्रेरणा करना, संघ का मुख्य कार्य है। • संघ की यह अपेक्षा रहती है कि साधक में घोर तपोबल हो या न हो, विशिष्ट श्रुत के बदले भले ही सामान्य
श्रुतधर ही हो, विशाल शिष्य समुदाय की अपेक्षा कदाचित् परिवार हीन हो, पर अखंड संयम व सुश्रद्धा की
संपदा तो होनी ही चाहिये। • संघ में सत्य, सदाचार एवं अपरिग्रह के मूलव्रत अखंड हों, यह अत्यावश्यक है। • संघ की शरण इसीलिये ली जाती है कि मंदमति साधक उपदेश, आदेश व संदेश में शास्त्र विरुद्ध प्रवृत्ति न करे,
महिमा पूजा के चक्कर में अकल्प का आसेवन नहीं करे और साधना मार्ग में समय-समय पर प्रोत्साहन पाता रहे, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सरलता से वृद्धि कर सके। संघ शीतल घर की तरह है। संघ में योग्य साधक स्वयं अपने गुण-दोषों का निरीक्षण करता है और साधारण सा
भी कहीं दोष दृष्टिगत हुआ कि अविलम्ब उसका शुद्धीकरण करता है। • तप-नियम और संयम-श्रद्धा ही संघ-भवन का मुख्य आधार स्तम्भ है । अत: कल्याणार्थी के लिये सदा इस प्रकार
के संघ की शरण श्रेयस्कर मानी गई है। • राज्य शासन में जैसे ईमानदार सैनिक आवश्यक हैं ठीक ऐसे ही धर्म शासन में भी आचार्य, उपाध्याय आदि सुयोग्य शासकों के साथ ईमानदार श्रावक-श्राविकाओं का सैन्य दल भी चाहिये श्रावक-श्राविकाएँ साधु-साध्वी के व्यक्तिगत लपेटे में नही आएँ । वे संघ को मुख्य मानकर संयम के अनुरूप सेवा करें। संघ मुख्य है, व्यक्ति मुख्य नहीं। संघ सदा रहेगा, व्यक्ति सदा नहीं रहेगा। व्यक्ति चाहे साधु हो, साध्वी हो या श्रावक-श्राविका । व्यक्ति का रक्षण संघ द्वारा होता है। नन्दीसूत्र की स्थिरावली में तीर्थंकर भगवान की स्तुति रूप गाथा तो तीन बताई, पर संघ की महिमा आठ उपमाओं से पन्द्रह गाथाओं में बताई गई है संघ मेरु है, संघ
नगर है आदि-आदि। • श्रावक रक्षक होता है और रक्षक का कर्तव्य है कि वह साधु-साध्वी के आहार-विहार शिक्षा-दीक्षा और
ज्ञान-ध्यान में निर्दोष मार्ग का सहयोगी रहे। • हमें जो भी साधना करनी है जिनरंजन के लिए करनी है जनरंजन के लिए नहीं। साधना के लिए जिनरंजन
चाहिये, जनरंजन नहीं। जनरंजन के व्यवहार में साधक-वर्ग में साधना का लक्ष्य गौण हो जाता है, भले ही उनको अनेक भक्त मिल जायें । खयाल रखो, जनरंजन से वाहवाही हो जायेगी, कीर्ति हो जायेगी, लेकिन आत्मोत्थान
नहीं होगा। जिन-रंजन में आत्मा का कहीं पतन न हो जाए इसका चिन्तन रहता है। • जिनरंजन की रुचि वाले श्रावक अपने आत्मोत्थान के साथ संत-समुदाय को भी वीतराग भगवान और संघ की