Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
हुआ , रंज नहीं आया। महावीर स्वामी ने साढे बारह वर्ष पर्यन्त उग्र तपश्चर्या करके वीतराग दशा प्राप्त की और सामायिक का || साक्षात्कार किया। उन्होंने संसार को यह संदेश दिया कि यदि शान्ति, स्थिरता और विमलता प्राप्त करनी है तो सामायिक की साधना करो।
मनोनियन्त्रण • कोई व्यक्ति यदि ऐसा सोचता है कि मन स्थिर नहीं रहता, अतएव माला फेरना छोड़ देना चाहिए, तो यह सही दिशा नहीं है। मन स्थिर नहीं रहता तो स्थिर रखने का प्रयत्न करना चाहिए न कि माला को खूटी पर टाँग देना चाहिए। साधना के समय मन इधर-उधर दौड़ता है तो उसे शनैः शनैः रोकने का प्रयत्न करना चाहिए, किन्तु काया और वचन, जो वश में हैं उन्हें भी क्यों चपलता युक्त बनाते हो? उन्हें तो एकाग्र रखो, और मन को काबू में करने का प्रयत्न करो। यदि काया और वाणी सम्बंधी अकुंश भी छोड़ दिया गया तो घाटे का सौदा होगा। • चंचलता तब दूर होती है जब संसार के पदार्थों को निस्सार समझ लिया जाता है। जब तक सांसारिक वैभव भी
कुछ है और उसका भी कुछ महत्त्व है, यह वासना मन में बनी रहेगी, तब तक चंचलता भी मिटने वाली नहीं है, क्योंकि हम जिसका महत्त्व स्वीकार करते हैं, उसकी ओर चित्त का आकर्षण हुए बिना नहीं रहता। एक करोड़पति हीरे के बहुमूल्य आभूषण पहन कर सज-धज के साथ बगल में बैठा है और आप हीरे का महत्त्व मानते हैं, तो आपका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहेगा। परन्तु यदि आप सादा पोशाक पहन कर बैठे हैं तो उसका ध्यान आपकी ओर आकृष्ट नहीं होगा, क्योंकि उसकी दृष्टि में सादा पोशाक का कोई महत्त्व नहीं है। एक बाई कीमती आभूषण पहन कर अगर बाइयों के सामने आती है तो उनका ध्यान उसकी ओर चला जाता है |
और कोई साधारण वेश-भूषा वाली बाई आती है तो ध्यान नहीं जाता। इसका कारण यही है कि बाइयों का चित्त आभूषणों के महत्त्व को स्वीकार करता है और आभूषणों के प्रति उनके मन में व्यक्त या अव्यक्त अभिलाषा मौजूद है। इसी प्रकार जब तक आप बाहर के वैभव को सारवान् और महत्त्व की चीज समझते रहेंगे, आपका मन उसकी
ओर आकर्षित होता रहेगा तो उसमें चंचलता भी रहेगी। इसके विपरीत जब साधक सांसारिक वैभव को निस्सार समझ लेता है और भगवान के चरणों में ही महत्ता का अनुभव करता है , तब उसके मन की चंचलता दूर हो | जाती है और वह भगवत्स्वरूप में ही अखण्ड आनन्द का अनुभव करता है। उसकी चित्तवृत्ति स्थिर हो जाती है
और इधर उधर भटकना बंद कर देती है। मनोनिग्रह के उपाय संक्षिप्त में दो प्रकार के हैं -एक हठ योग, जिसमें कि बलात् मन को रोका जाता है और | दूसरा ज्ञान-मार्ग, जिसके द्वारा मन की गति बदली जाती है। हठयोग में बहुत से लोग श्वास निरोध के द्वारा मन को रोकने का प्रयत्न करते हैं और कई दिनों तक समाधि लगाकर भी बैठते हैं , परन्तु उनके मन की दशा बंधे | हुए घोड़े की तरह खुले होते ही वेगवती बन जाती है। प्राणनिरोध से तत्काल मानसिक स्थिरता हो सकती है , किन्तु उसके मूल स्वभाव में परिवर्तन नहीं होता। अतएव मनोविजय में उसके स्वभाव-परिवर्तन के लिए || ज्ञानमार्ग ही श्रेष्ठ है। ज्ञान से होने वाला मनोजय स्थायी भी है।