Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
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है। जीवन-निर्वाह के लिए वस्तु जुटाना, खाद्य पदार्थ जुटाना, संतति का पालन-पोषण करना, गर्मी-सर्दी से बचाव करना आदि बातें तो पशु भी कर लेते हैं। पक्षी बड़ी चतुराई से अपना घोंसला बना लेता है और वह भी ऐसे स्थानों में जहाँ अन्य प्राणियों का संचार न हो। पेट पालने का तरीका, हुनर या शिल्प-विद्या विज्ञान है तथा आत्मतत्त्व को जानने की विद्या ज्ञान है-"मोक्षे धीनिमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः।"
शुक्लपक्षी
मिथ्यात्वी जीव का जब देश ऊन अर्द्ध पुद्गल संसार-भ्रमण बाकी होता है, तब जीव शुक्लपक्षी होता है। शुक्लपक्षी होने पर कितने समय के पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त करे, इसका नियम नहीं है। प्राचीन संतों की धारणा है कि कोई लघुकर्मी जीव तत्काल भी प्राप्त कर सकता है और कोई दीर्घकाल के पश्चात् भी। शुक्लपक्षी यदि क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है तो फिर मिथ्यात्वी नहीं होता। किन्तु क्षयोपशम सम्यक्त्वी हो तो समय पाकर मिथ्यात्व मोह के उदय से मिथ्यात्वी बन सकता है, किन्तु शुक्लपक्षी फिर कृष्णपक्षी नहीं हो सकता। - शोषण नहीं पोषण • यदि किसी को नौकर रखना है तो नौकर रखने वाले चालाकी किया करते हैं। वे सोचते हैं कि बड़े आदमी को
नौकर रखेंगे तो वह पैसा ज्यादा लेगा और काम थोड़ा करेगा और हुकूमत मानेगा नहीं, इसलिए छोटे बच्चे को नौकर रखा जाए जो कम पढ़ा-लिखा हो और छोटे कुल का हो। वह अपनी हुकूमत भी मानेगा और पगार भी थोड़ी लेगा। कभी ऐसा नौकर मिल जाता है जिसको यह कह दिया जाता है कि तुझे रोटी दूंगा, कपड़े दूंगा, रोटी-कपड़ा ले और काम हो सो कर। घर में दस आदमी आ गये तो उस नौकर से कहेंगे कि आज तुझे थाल भी रगड़ने पड़ेंगे। फिर कहेंगे कि आज झाडू भी लगा दे। तीसरे दिन कहा कि आज पानी भरने वाली नहीं आई है तू नल पर से पानी ले आ। वह पानी भी लायेगा। अत्यधिक कम वेतन पर या रोटी कपड़े पर रखा है, उससे कपड़े भी धुला लेंगे, बच्चे को रखने का काम भी उसे दे देंगे। बच्चा मल-मूत्र कर गया तो उसे भी वह साफ करेगा। इतना काम उससे लिया जाता है। जितना काम लिया है उतना ही ईमानदारी से देना भी चाहिए। उससे अधिक काम लिया है तो वेतन के अलावा अनुदान भी मिलना चाहिए। आपका मुनीम है अथवा आप से काम सीखने वाला है। क्या आप उसमें ऐसी क्षमता पैदा कर दोगे कि वह मुनीम ही नहीं रहे, सेठ बन जाय। ऐसे दिल वाले आप में से कितने हैं ? कदाचित् उसकी हैसियत और योग्यता बढ़ने पर नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र धन्धा करने की बात कहे तो यह सुनकर आपके मन में और चेहरे पर | फर्क तो नहीं पड़ेगा?
श्रमण-जीवन/ साधक-जीवन • श्रमण के दो अर्थ मुख्य हैं। एक तो यह कि तप और संयम में जो अपनी पूरी शक्ति लगा रहा है, तपस्वी है वह
श्रमण है। दूसरा अर्थ है 'समण' अर्थात् त्रस, स्थावर सब प्रकार के प्राणियों की जिसके अन्त:करण में हित-कामना है, वह श्रमण है। जो साधक त्रस-स्थावर जीवों पर समभाव रखने वाला होता है, उसके मन में आकुलता-व्याकुलता और विषम भाव नहीं होते, वही श्रमण कहलाने का अधिकारी है, उसको ‘समन' कहते हैं।