Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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DEEEEEasansar
(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
४२५॥ हमारी प्रार्थना के केन्द्र यदि वीतराग होंगे तो निश्चित रूप से हमारी मनोवृत्तियों में प्रशस्तता और उच्च स्थिति आएगी। उस समय सांसारिक मोह-माया का कितना भी सघन पर्दा आत्मा पर क्यों न पड़ा हो, किन्तु ! वीतराग-स्वरूप का चिन्तन करने वाले उसे धीरे-धीरे अवश्य हटा सकेंगे। • जिसने वीतराग की प्रार्थना कर ली हो, जो वीतराग की प्रार्थना के सुधा-सागर में अवगाहन कर चुका हो, जिसका मन-मयूर वीतराग की प्रार्थना में मस्त बन चुका हो, उसका मन कभी भैरू की प्रार्थना से सन्तुष्ट होगा ? भवानी की प्रार्थना में आनन्दानुभव कर सकेगा? काली. महाकाली आदि सराग देवों की ओर आकर्षित होगा? कदापि नहीं। वीतराग की प्रार्थना में क्षीर समुद्र के मधुर अमृत से भी अनन्तगुणा अधिक माधुर्य एवं आत्मिक गुणों की
मिठास है । उस मिठास में राग और द्वेष का खारापन नाम मात्र भी नहीं है। • जब प्रार्थना आराध्य के प्रति हार्दिक प्रीति से उत्पन्न होती है, तब उसमें अनूठा ही मिठास होता है। जब प्रार्थना
अन्तस्तल से उद्भूत होती है और जिह्वा उसका वाहन मात्र होती है तभी प्रार्थना हार्दिक कहलाती है और उसके माधुर्य की तुलना नहीं हो सकती। • प्रार्थना के दो रूप हैं-भौतिक-लौकिक प्रार्थना और आध्यात्मिक लोकोत्तर प्रार्थना । वीतराग देव को प्रार्थना
का केन्द्र बनाने वाला यदि मन से जागृत है तो वह उनसे भौतिक प्रार्थना नहीं करेगा। कदाचित् कोई भूला भटका, दिग्भ्रान्त होकर भौतिक प्रार्थना करने लगे तो वीतरागता का स्मरण आते ही वह सन्मार्ग पर आ जायेगा। वीतरागता की प्रार्थना की यह एक बड़ी खूबी है। हमारे साहित्य में प्रार्थना के विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। वर्गीकरण किया जाय तो तीन विभागों में उन | सबका समावेश होता है - १. स्तुतिप्रधान प्रार्थना २. भावनाप्रधान प्रार्थना, ३. याचनाप्रधान प्रार्थना । स्तुतिप्रधान प्रार्थना में प्रार्थ्य के गुणों का उत्कीर्तन किया जाता है । उन गुणों के प्रति प्रार्थी अपना हार्दिक अनुराग व्यक्त करता है और प्रार्थ्य की विशेषताओं के साथ अपनी अभिन्नता स्थापित करने की चेष्टा करता है। स्तुतिप्रधान प्रार्थना में जब भावना की गहराई उत्पन्न हो जाती है तो प्रार्थी अपने प्रार्थ्य के विराट् स्वरूप में अपने व्यक्तित्व को विलीन करके एकाकार बन जाता है। स्तुतिप्रधान प्रार्थना सभी प्रार्थनाओं में उत्तम मानी गई है, क्योंकि इसी के द्वारा प्रार्थ्य और प्रार्थी के बीच का पर्दा दूर किया जाता है। इसमें किसी भी प्रकार की कामना की अभिव्यक्ति नहीं होती। दूसरी श्रेणी की प्रार्थना होती है भावनाप्रधान । इस श्रेणी की प्रार्थना में भी स्तुति का अंश पाया जा सकता है, तथापि उसका प्रधान स्वर आन्तरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति करना होता है। इस प्रार्थना में साधक या प्रार्थी
अपने मन को सबल बनाने के लिए शुभ संकल्प करता है। • तीसरे प्रकार की प्रार्थना होती है - याचना प्रधान । इस प्रार्थना में स्तुति और भावना भी विद्यमान रह सकती है,
तथापि मुख्यता याचना की ही होती है। याचना प्रधान स्तुति के भी दो विभाग किये जा सकते हैं। एक प्रकार की स्तुति वह है जिसमें अपने आराध्य से आध्यात्मिक वैभव की याचना की जाती है और दूसरे प्रकार की स्तुति वह है जिसमें भौतिक वस्तुओं की | याचना की जाती है।