Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
४२३ समाज की सेवा का निमित्त भी हो सकता है। प्रजा की आवश्यकताओं की पूर्ति करना अर्थात् जहाँ जीवनोपयोगी वस्तुएँ सुलभ नहीं हैं, उन्हें सुलभ कर देना व्यापारी की समाज-सेवा है, किन्तु वह सेवा तभी सेवा कहलाती है जब व्यापारी अनैतिकता का आश्रय न ले, एकमात्र अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर अनुचित लाभ न उठावे। प्रायश्चित्त राज्य-शासन में तो दोषी के दोष दूसरे कहते हैं, पर धर्म-शासन में दोषी स्वयं अपने दोष गुरु चरणों में निश्छल भाव से निवेदन कर प्रायश्चित्त से आत्म-शुद्धि करता है। धर्मशासन में प्रायश्चित्त को भार नहीं माना जाता। आत्मार्थी शिष्य प्रायश्चित्त के द्वारा आत्मशुद्धि करने वाले गुरु को उपकारी मानता है और सहर्ष प्रायश्चित्त का अनुपालन करता है। प्रार्थना/स्तुति वीतराग भगवान् के भजन से भक्त को उसी प्रकार लाभ मिलता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणों के सेवन से
और वायु के सेवन से रोगी को लाभ होता है। एक आदमी गन्दी गलियों की हवा का सेवन करता है , रात-दिन उसी में पड़ा रहता है और दूसरा प्रभात के समय उद्यान की शुद्ध वायु का सेवन करता है। शुद्ध वायु के सेवन से दिल और दिमाग में ताजगी का अनुभव होता है, शरीर में हल्कापन महसूस होता है। यही बात वीतराग के
भजन पर भी लागू होती है। वीतराग के भजन से चित्त शुद्ध होता है। • शारीरिक रोगों के समान संसारी जीव आध्यात्मिक रोगों से भी ग्रसित हैं। जब वे किसी रागी द्वेषी का स्मरण
करते हैं तो उनकी आत्मा राग और द्वेष से अधिक ग्रस्त होती है, परन्तु जब वीतराग परमात्मा का स्मरण किया जाता है तो राग की आकुलता की और शोक के सन्ताप की उपशान्ति हो जाती है। • यदि प्रार्थना का संबल लेकर चलोगे तो मन में ताकत आएगी। मगर वह ताकत उपाश्रय तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए। उसका उपयोग बाहरी जगत् में होना चाहिए। धर्म-स्थान पावर हाउस के समान है। पावर हाउस
में उत्पन्न हुई पावर यदि अन्यत्र काम न आई तो उसकी सार्थकता ही क्या है? • एक व्यक्ति बड़ा क्रोधी है, घमंडी है, लालची है, तमोगुणी है, परन्तु वह उज्ज्वल भाव से प्रार्थना करेगा तो चन्द
दिनों में ही उसे आभास होने लगेगा कि मेरी क्रोध की प्रकृति में कुछ मन्दता आ गई है। • आत्मा अपूर्ण और परमात्मा पूर्ण है। जहाँ अपूर्णता है वहाँ प्यास है, ख्वाइश है, प्रार्थना है। अपूर्ण को जहाँ | पूर्णता दिखती है, वहीं वह जाता है और अपनी अपूर्णता को दूर करने का प्रयास करता है। मनुष्य जड़भाव में भटक रहा है, मगर जब उसे सम्यग्ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है, तब वह दुनियां के पदार्थों को अपने लिए अनुपयुक्त और निस्सार समझकर उनसे विलग होने लगता है और परमात्मा के गुणों का मकरन्द ग्रहण करने के लिए लालायित हो उठता है। वह सोचता है-परमात्मा के अनन्त ज्ञान-दर्शन की जो लोकोत्तर ज्योति जगमगाती रहती है, वही मुझमें भी स्वभावतः विद्यमान है, मगर वह मुरझाई हुई है, आवृत्त हो रही हैं। मैं उस ज्योति का स्मरण करूँगा, ध्यान करूँगा, चिन्तन करूँगा, प्रार्थना करूँगा और उसकी महिमा का गान करूँगा तो मेरी अन्तरात्मा में भी वह प्रज्वलित हो उठेगी। तब मैं भी परमज्योति परमात्मा का पद प्राप्त कर लूँगा।