Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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हटने पर ज्ञान में रुचि हो जाती है, साधना में रुचि हो जाती है, धर्म में रुचि जाती है।
धर्म-साधना
• संसार में प्रायः दो प्रकार की साधना पायी जाती है - एक लोक-साधना और दूसरी धर्म - साधना । अधिकांश मनुष्य अर्थ और कामरूप लोक - साधना के उपार्जन में ही अपने बहुमूल्य जीवन का समस्त समय खो देते हैं और उन्हें धर्म-साधना के लिए अवकाश ही नहीं रह जाता। ऐसे मनुष्य भौतिकता के भयंकर फेर में पड़कर न केवल अपना अहित करते हैं, वरन् समाज, देश और विश्व का भी अहित करते हैं ।
धर्म-साधना का लक्ष्य बिल्कुल विपरीत है। यह मनुष्य को मानवता से भी ऊँचा उठाकर देवत्व या अमरत्व की ओर अग्रसर करती है। वास्तव में धर्म-साधना के बिना मानव-जीवन निष्फल, अपूर्ण और निरर्थक प्रतीत होता है। आर्थिक दृष्टि से कोई व्यक्ति चाहे कितना ही सम्पन्न, इन्द्र या कुबेर के समान क्यों न हो, किन्तु उसका आंतरिक परिष्कार नहीं हुआ तो निश्चय ही जीवन अधूरा ही रहेगा और उसे वास्तविक लौकिक एवं पारलौकिक सुख प्राप्त नहीं होगा।
• साधनाहीन विलासी व्यक्ति जीवन कुछ प्राप्त नहीं करता, वह अपनी शक्ति को यों ही गंवा बैठता है । जीवन चाहे लौकिक हो या आध्यात्मिक, सफलता के लिए पूर्ण अभ्यास की आवश्यकता रहती है। जीवन को उन्नत बनाने और उसमें रही हुई ज्ञान-क्रिया की ज्योति को जगाने के लिए साधना की आवश्यकता है । साधना के बल पर चंचल मन पर भी काबू पाया जा सकता है। जैसे गीताकार श्रीकृष्ण ने भी कहा है – “अभ्यासेन तु कौन्तेय, वैराग्येण च गृह्यते
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• धर्माराधना के बिना जीवन में सच्ची शान्ति नहीं मिलती । संसार की समस्त कलाएँ, निपुणताएँ और विशेषताएँ जीवन को तब तक समुन्नत और सफल नहीं बना सकतीं, जब तक उनमें धर्म कला की प्रधानता नहीं होती ।
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जो साधक मार्ग के कांटों, रोड़ों और आपत्तियों की परवाह नहीं करता, मंजिल उसके स्वागत के लिए ! पलक-पांवड़े बिछाये तैयार खड़ी रहती । जो सांसारिक क्षण भंगुर प्रलोभनों के चक्कर में नहीं पड़ता और साहस से साधना के मार्ग में चलने के लिए जुट जाता है, उसका इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाते हैं। • साधना के मार्ग में पैर बढ़ाना आसान नहीं है। बड़ी-बड़ी विघ्न-बाधाएँ साधक को विचलित करने के लिए पथ | पर रोड़े डालती रहती हैं, जिनमें मुख्य मोह और कामना है । इनमें इतनी फिसलन है कि साधक अगर सजग न रहा तो वह फिसले बिना नहीं रहता ।
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स्वाध्यायी ज्ञान की साधना करता है, परन्तु ज्ञान के साथ क्रिया की साधना भी जरूरी है। स्वाध्यायी अच्छे वक्ता, लेखक एवं प्रवचन व भाषण कला में निपुण हो सकते हैं, पर उनमें आचरण भी उसी अनुरूप होना आवश्यक है।
• सभी साधकों को साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ना है। ध्यान एवं मौन की साधना के साथ यदि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना करेंगे तो आत्मा का अवश्य कल्याण होगा ।
• हिंसा छोड़ अहिंसा का पालन करना इतना कठिन नहीं है, जितना कि क्रोध, मोह, माया, ममता की ओर आकर्षित होने की जो एक प्रकार की वृत्ति है, आकर्षण है, उससे बचे रहना । अन्तरंग साधना से ही ऐसा संभव हो सकता