Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
सेनापति ने अपने सेनानायकों को घेरा हटाने का आदेश दिया। पलक झपकते ही घेरा हटा। सैनिक | टुकड़ियों ने शिविर की ओर प्रयाण कर दिया।
नगरश्रेष्ठी ने अपने कोषाध्यक्ष से रेशम की थैलियों में ५ हजार स्वर्ण मुद्राएं मंगवाई और चार घोड़ों की बग्घी में बैठ सेनापति की ओर कूच किया। बग्घी में बैठे नगरश्रेष्ठी को अपनी ओर आते देख सेनापति अपने अश्व से | उतरा व बग्घी से उतरकर श्रेष्ठी बोला-“सेनापते ! आपने नगर का घेरा उठवा कर हजारों लोगों को संतोष की सांस | | दी है। वे सब लोग आपकी दीर्घायु और बहबूदी के लिए दुआ कर रहे हैं।”
सेनापति ने जवाब दिया-“यह तो आपकी जर्रानवाजी है, जो ऐसा फरमा रहे हैं। दर हकीकत यह सब कुछ आपकी दानिशमंदी, दिलेरी और दौलत का ही करिश्मा है। सच तो यह है कि आपने मुझे रूहानी रोशनी दिखा कर दरिन्दों से भरे पाताल भेदी अन्धेरे दरों में गिरने से बचा लिया है। अब कत्लेआम के काले कलाम इस जुबां से | कभी नहीं निकलेंगे।”
नगरश्रेष्ठी ने अपने खजांची की ओर इशारा किया और सेनापति से कहा-'ये ५००० स्वर्णमुद्राएँ हाजिर हैं।'
सेनापति बोला-“अब इनकी कोई जरूरत नहीं है। आपने जो नेक नसीहत मुझे दी, उस पर न्यौछावर हूँ। यह कह सेनापति अपने अश्व पर आरूढ़ हो प्रस्थान कर गया। सारे नगर में 'नगरश्रेष्ठी की जय हो' । 'नगरश्रेष्ठी अमर हो', के नारे गूंजने लगे।
अपने प्रवचन का संवरण करते हुए आचार्य श्री ने फरमाया कि “अहिंसा के परमोपासक श्रावकरत्न ! उसी | नगरश्रेष्ठी का रक्त आपकी धमनियों में प्रवाहित हो रहा है। आप भी अहिंसा के उपासक और रत्नत्रयी के धारक | श्रावक हैं। यदि आप भी अपने नगरश्रेष्ठी के शौर्य, साहस और अपूर्व अनुकरणीय त्याग का अनुसरण करना प्रारम्भ | कर दें तो जन-जन के लिए आदरणीय और अनुकरणीय बन सकते हैं।”
आचार्यश्री के इस ऐतिहासिक प्रवचन को सुनकर जन-जन के मन में परोपकार की प्रेरणा प्रस्फुटित हुई। बड़ी | संख्या में श्रावक-श्राविका वर्ग ने सामायिक, स्वाध्याय, जप-तप आदि धर्माराधन के नियम भी ग्रहण किए।
धर्म-जागरण के इस क्रम में आचार्य श्री इन्दौर पधारे । यहाँ स्थविर मुनि श्री ताराचन्द्र जी म, श्री किशनलाल जी म. एवं श्री सोभागमुनि जी म. से मधुर मिलन हुआ। सन्त-समागम से संघ में बड़ा उल्लास का वातावरण था। वयोवृद्ध श्री ताराचन्दजी म. बडे सरल एवं परम वत्सलता वाले थे। बाबाजी श्री सुजानमलजी महाराज के ओजस्वी प्रवचन से सब प्रभावित थे। यहां के प्रमुख श्रावक श्री कन्हैयालालजी भण्डारी के आग्रह से एक दिन उनकी मिल में भी व्याख्यान हुआ। समाज में उनका एवं श्री केसरीचन्दजी भण्डारी का प्रमुख स्थान था। भण्डारी जी की वत्सलता से रामपुरा के दो सौ-तीन सौ जैन परिवार इन्दौर आ बसे थे। थियोसोकिकल सोसायटी में भी आचार्य श्री का जैनधर्म पर प्रवचन हुआ।
यहाँ से आचार्य श्री ने धर्म, संस्कृति, विद्या एवं कला के पुरातन केन्द्र इतिहास प्रसिद्ध उज्जैन नगरी में पदार्पण किया। स्वामीजी श्री सुजानमलजी महाराज आदि सन्तवृन्द भी अन्यान्य क्षेत्रों को फरसते हुए वहाँ पधार गए। तत्र विराजित आत्मार्थी श्री इन्द्रमल जी म. और मोतीलाल जी म. आदि मुनिवृन्द के साथ पारस्परिक वात्सल्य सम्बन्ध प्रेमपूर्ण एवं प्रशंसनीय रहा। व्याख्यान और ज्ञानचर्चा साथ ही हुआ करती थी। यहां पर संयोगवश बरेली के सुश्रावक श्री रतनलाल जी नाहर दर्शनार्थ उपस्थित हुए। उन्होंने मुमुक्षु श्री लक्ष्मीचन्द जी की अनगार धर्म में दीक्षित होने की प्रबल भावना एवं उत्कण्ठा को देखते हुए आचार्यश्री से निवेदन किया कि अब इन्हें शीघ्र ही दीक्षा देने की