Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
हो जाने से प्रवाहित करनी पड़ी। यहाँ आपने खरतरगच्छ का समृद्ध ज्ञान भण्डार भी देखा। इसमें १०० बस्ते लिखित एवं अन्य मुद्रित थे। सुरक्षा की व्यवस्था ठीक थी। देवीलाल जी पोरवाड नित्यनियमी एवं गम्भीर स्वभावी थे। महिलाओं ने सामायिक का स्वरूप समझा और अच्छा धर्माराधन हुआ। • बूंदी, केकड़ी होकर अजमेर
कोटा के नयापुरा से तालेडा, नया गाँव, देवपुरा होते हुए आप बूंदी पधारे व कलक्टर मेहता सा. की कोठी पर | | विराजे । पीपाड़ के श्रावक विनति करने आए। दूसरे दिन चैत्र कृष्णा नवमी को आदिनाथ जयन्ती पर बूंदी शहर में | प्रभावी प्रवचन हुआ। प्रभु के आदेश पर चलने की प्रेरणा की। यहाँ पर आपने दिगम्बर एवं श्वेताम्बर ज्ञान भण्डार का अवलोकन किया। बूंदी से विहार कर आपने बडा नयागाँव के उच्चतर विद्यालय में शिक्षा के साथ संस्कार के महत्त्व पर पौन घण्टे प्रवचन फरमाया। घाटी उतरने चढ़ने के कारण इस गाँव का हिण्डोली नाम सार्थक है। पहाड़ी और तलाई के कारण प्राकृतिक दृष्टि से रमणीक है। देवली में बीड़ी के अभिकर्ता कालूजी तेली के निवेदन पर उनके बच्चों को १० मिनट जप, सूर्योदय के समय निद्रित नहीं रहने एवं चोरी नहीं करने के नियम दिलाए। वहां से चलकर आपने नदी के पास मण्डपी में रात्रि विश्राम किया। फिर बोगला के आदिवासी आश्रम पर ठहरे । मार्ग में | श्रमिक को शराब एवं सिगरेट का त्याग कराते हुए आप कालेड़ा एवं फिर केकड़ी पधारे।
केकड़ी में सामायिक पर प्रवचन करते हुए पूज्यपाद ने फरमाया -“प्रभु ने वीतराग स्वरूप की प्राप्ति के लिए सामायिक की साधना बतलायी। वह साधनारूप भी है और सिद्धिरूप भी। इसका आरम्भ चतुर्थ गुणस्थान से ही हो जाता है। यह साधना का प्रारम्भिक रूप है। दूसरी श्रेणि पंचम गुणस्थान और तीसरी श्रेणि पूर्ण संयमी की है। यथाख्यात चारित्र सामायिक का सिद्धि स्थान है। प्रारम्भिक काल में राग-द्वेष की विषमता रहती है, उसको सम करने के लिये ही मुहूर्त भर का अभ्यास किया जाता है। जो लोग सोचते हैं कि मन शान्त एवं स्थिर रहे तभी सामायिक करना, तो यह भूल है।" यहाँ जयपुर का |शिष्ट मण्डल उपस्थित हुआ। केकडी में दीपचन्दजी पांड्या प्राचीन साहित्य के अन्वेषणशील थे। एक व्याख्यान के बाद ही केकड़ी से सरवाड़ के लिए प्रस्थान करते समय प्रात:काल कुछ श्रावकों ने धर्मस्थानक में नियमित एवं कुछ ने साप्ताहिक स्वाध्याय करने का नियम लिया। आपने मास्टर कन्हैयालाल जी लोढा को धर्म शिक्षण के लिए प्रेरणा दी।
सरवाड़ में आपने अपने प्रवचन में फरमाया-“मनुष्य की विशेषता शरीर और परिवार के विकास से नहीं, आध्यात्मिक विकास से है। भारत में अध्यात्म-परम्परा शिथिल हो रही है। उसे जगाइए। इसी में देश, समाज एवं आपका कल्याण है।” गोयला में रात्रि-उद्बोधन करते हुए फरमाया -"चार प्रकार के मनुष्य हैं - एक राम की तरह वैभव-सुख पाकर सदुपयोग से सुख , कीर्ति एवं सद्गति का भागी बनता है। दूसरा रावण और ब्रह्मदत्त की तरह दुरुपयोग से दुःख, अकीर्ति तथा दुर्गति का भागी होता है। तीसरा साधनहीन भी सुमति एवं सद् आचार से सुगति का भागी होता है तथा चौथा दोनों खोता है। "
उस समय विहार में लोग अन्य गाँवों से साइकिल के द्वारा भी आते थे। सोकल्या की ओर विहार के समय दो सज्जन नसीराबाद से साइकिल द्वारा आये।शुभकरण गुरां कम्पाउण्डर ने सजोड़े शीलवत अंगीकार किया एवं झूठ बोलने का त्याग किया। सोकल्या पहुंचने पर बादलों के छा जाने से दिन ठण्डा रहा। दो-तीन गर्जन के साथ वर्षा भी हुई। यहाँ आपने धनराज को उसकी योग्यता के अनुसार नवकार मंत्र की जगह 'अरिहंत सिद्ध - साहू' सिखाया।