Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
२९९ आचार्य श्री के स्वास्थ्य एवं संथारा विषयक समाचार देशभर के जैन एवं जैनेतर समाज में कर्णाकर्णि तीव्रता | से प्रसारित हो चुके थे। एक आचार्य को संथारा ! सदियों में होने वाली दुष्कर घटना ! देश के प्रमुख संत-सतियों के यहां से भी स्वास्थ्य एवं संथारा विषयक-पत्र आने लगे।
आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी म.सा. का अहमदनगर से जो पत्र प्राप्त हुआ, उसका कुछ अंश इस प्रकार || था
“साधना का चरम लक्ष्य पण्डित मरण है। आचार्य श्री जी ने अपने शरीर पर से ममत्व उतार दिया है, यह | उनकी उच्च साधना का द्योतक है।"
___ “संयम-जीवन में आचार्य श्री जी के साथ कई बार मिले हैं, साथ रहे हैं, शरीर दो थे, किन्तु विचार एक थे, दूध पानी की तरह रहे हैं। आचार्य श्री जी ने भी यही फरमाया है कि मेरी भी वृद्धावस्था है । शरीर के पुद्गल ढीले पड़ रहे हैं, मेरी ओर से या मेरे साथ रहने वाले अन्तेवासी सन्तों की ओर से या मेरे आज्ञानुवर्ती सन्तों की ओर से आपको कोई कष्ट पहुँचा हो, मन दुःखाया गया हो तो मैं क्षमायाचना करता हूँ।”
तपस्वीराज श्री चम्पालालजी म.सा. ने शास्त्री नगर, जोधपुर से २०.३.१९९१ को लिखवाये पत्र में पारस्परिक क्षमायाचना के अनन्तर स्पष्ट किया - “आप श्री ने दोनों सम्प्रदायों के पारस्परिक प्रेम संबंध एवं मैत्री-सम्बन्ध के विषय में जो शुभ भावना व्यक्त की है, उसका हम हृदय से सत्कार, सम्मान एवं आदर करते हैं। हमारी भी यही भावना है कि इन दोनों सम्प्रदायों में वर्तमान में जो मैत्री-सम्बन्ध एवं प्रेम-सम्बन्ध बना हुआ है वह | | वैसा ही बना रहे, बल्कि उसमें उत्तरोत्तर और वृद्धि होती रहे, ऐसी हमारी भावना है।" ।
__श्रद्धेय आचार्यप्रवर श्री नानालालजी म.सा. ने १३ अप्रेल १९९१को मांडल-चौराहा से जो संदेश प्रेषित कराया, उसका अंश प्रस्तुत है
___“आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने वीतराग शासन में जो सेवाएं अर्पित की वे सदा प्रेरक रहेंगी। आचार्य श्री विशुद्ध ज्ञान एवं निर्मल आचरण के पक्षधर रहे हैं। आचार्य श्री के प्रभावक जीवन की अमिट रेखाएँ सदैव भव्य मुमुक्षु आत्माओं को प्रेरणाएँ प्रदान करती रहें तथा वे अपने स्वीकृत ‘सिव-मयल-मरुअ-मणंत-मक्खय-मव्वाबाह मपुणरावित्तिं सिद्धिगई' के पथ को वरण करने में सन्नद्ध रहें, यही मंगल मनीषा है।” ।
विजयनगर से शासन प्रभाविका महासती श्री यशकुंवरजी म.सा. के यहाँ से १५ मार्च ९१ को प्रेषित | पत्र के अंश बहुत ही भावपूर्ण हैं -
“जिनशासन की अमूल्य निधि, जिनशासन की गरिमा, संयम-साधना के महास्रोत, ज्ञान सूर्य, पावन पथ के राही, | स्वाध्याय संघ के प्रणेता, सूर्य सम तेजस्वी, चन्द्र सम शीतल, सागर सम गंभीर, महा मनीषी, महायशस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, उपमातीत व्यक्तित्व, जिनशासन प्रभावक, आराध्य आचार्यप्रवर की अस्वस्थता के समाचार ज्ञात कर मन पीड़ा से अभिभूत हो उठा, और होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि आपश्री की कृपा दृष्टि जो सदैव रही है। आपश्री के पावन सान्निध्य में पावन श्री चरणों में बैठकर असीम आनंद की अनुभूति हुई थी, मन अपरिमित शान्ति से परिपूर्ण बना था। कल्मषहारिणी पतितपावनी, कल्याणी, जिनवाणी आप श्री के मुखारविन्द से श्रवण कर हृदय बड़ा प्रमुदित हुआ था। आप श्री के पावन दिव्य दर्शन लाभ से इन प्यासे नयनों की प्यास बुझायी थी। आपश्री के अगाध ज्ञानसागर की कुछ ज्ञान बूंदे पाकर मन प्रसन्नता से झूम उठा था, वे क्षण जो इतने पावन थे, आनन्द से परिपूर्ण थे, कैसे उन अमूल्य क्षणों को विस्मृत कर दें। आज भी अतीत के स्वर्णिम क्षणों का दृश्य नेत्रों के समक्ष साकार होता हुआ प्रतीत होता है। आप श्री की स्मृति