Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३१६ • घोर से घोर संकट आने पर भी सच्चे साधक-सन्त अपने पथ से चलायमान नहीं होते, बल्कि उस संकट की आग
में तप कर वे और अधिक उज्ज्वल होते हैं। , श्रावक का कर्तव्य है कि वह साधु की संयम -साधना में सहायक बने । राग के वशीभूत होकर ऐसा कोई कार्य |
न करे या ऐसी कोई वस्तु देने का प्रयत्न न करे, जिससे साधु का संयम खतरे में पड़ता हो। . पैर में चभे कांटे और फोड़े में पैदा हुए मवाद के बाहर निकलने पर जैसे शान्ति प्राप्त होती है उसी प्रकार सच्चा
साधक अपने दोष का आलोचन और प्रतिक्रमण करके ही शान्ति का अनुभव करता है। इसके विपरीत जो प्रायश्चित्त के भय से अथवा लोकापवाद के भय से अपने दुष्कृत को दबाने का प्रयत्न करता है, वह जिनागम का साधक नहीं, विराधक है। मनुष्य अर्थनीति में जितना समय लगाता है, उसका आधा समय भी धर्मनीति में लगावे, तो उसका उद्धार हो
सकता है। • हम जिस वस्तु के लिए सघर्षरत होते हैं, न तो उसका स्थायित्व है और न वह अपनी ही है। • धन, जन पर यदि तीव्र आसक्ति नहीं रहेगी, तो आर्त नहीं होगा। • जहाँ अपध्यान रहेगा, वहाँ शुभध्यान नहीं होगा और जब शुभ भाव नहीं आयेंगे तो बुरे भाव बढ़ेंगे।
स्वाध्याय को नित्य का आवश्यक कर्म मान लिया जाए, तो सहज ही प्रमाद घट सकेगा। आवश्यकता है |
स्वाध्याय को दैनिक आवश्यक सूचि में नियमित स्थान देने की। • संसार में दुःख के दो कारण हैं – मोह और अज्ञान । सामायिक मोह को घटाने और स्वाध्याय अज्ञान को दूर
करने का अमोघ उपाय है। भोग सब रोगों का कारण है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ये सुख के साधन नहीं हैं, वरन् दुःख की सामग्रियाँ हैं।
इन्हीं के द्वारा इन्द्रियाँ मनुष्य को दुःख पहुँचाती हैं तथा मन को अशान्त बनाती हैं। • यदि चारित्र की आराधना करेंगे तो पाप का भार, कर्म का भार घटेगा, क्षीण होगा। पाप का भार घटने से आत्मा
हल्की होगी। |• सद्गुरु मन, वाणी और कर्म से एक समान होते हैं। • संसार में साधनसम्पन्न एवं धनी-मानी युवक धर्म-मार्ग की ओर अग्रसर होकर दूसरों को इस ओर लाने का |
प्रयत्न करें तो उसका विशेष प्रभाव होता है। • जिस समाज को अपने इतिहास का ज्ञान नहीं, वह कभी भी सही दिशा में आगे नहीं बढ़ सकता। वर्तमान को
समुन्नत और भविष्य को उज्वल एवं कल्याणकारी बनाने के लिए अतीत का ज्ञान और उसकी सतत प्रेरणा
आवश्यक है। • जो लोग अज्ञानता या वासना की दासता से अपना लक्ष्य स्थिर नहीं कर पाते, साधना करके भी वे शान्ति प्राप्त नहीं करते । जिनका लक्ष्य स्थिर हो गया है वे धीरे-धीरे चलकर भी मंजिल तक पहुँच जाते हैं। अनुभूति प्राप्त ज्ञानियों ने कहा है कि मानव ! तेरा अमूल्य जीवन भोग के लिए नहीं है। तुझे करणी करना है, | ऐसी करणी कि तेरे अनंतकाल के बंधन कट जाएं। तेरा चरम और परम लक्ष्य मुक्ति है, इसको मत भूल।