Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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|| द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
३२७ का? • जो पूंजी पाकर स्वयं उसका सदुपयोग नहीं करता, और दूसरों की सहायता नहीं करता प्रत्युत दुर्व्यसनों का पोषण
करता है, वह इस लोक मे निन्दित बनता है और अपरलोक को पापमय बना कर दु:खी होता है। • जीवन, धन और वैभव जाने वाली वस्तुएँ हैं, किन्तु इन जाने वाली वस्तुओं से कुछ लाभ उठा लिया जाय, अपने
भविष्य को कल्याणमय बना लिया जाय, इसी में मनुष्य की बुद्धिमत्ता है, विवेकशीलता है। • स्वेच्छापूर्वक अंगीकार किया हुआ व्रत का बन्धन साहस और शक्ति प्रदान करता है। प्रतिकूल परिस्थिति में
इसके द्वारा अपनी मर्यादा से विचलित न होने की प्रेरणा प्राप्त होती है। परिग्रह को घटाने से हिंसा, असत्य, स्तेय, कुशील इन चारों पर रोक लगती है। अहिंसा आदि चार व्रत अपने
आप पुष्ट होते रहते हैं। • प्रमाद और कषाय दोनों सम्यग्दर्शन और विरतिभाव की निर्मलता में बाधक हैं। • विचार-बल यदि पुष्ट हो तो साधक अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का ठीक तरह से निर्वाह कर सकेगा।
भोगोपभोग की लालसा जितनी तीव्र होगी, पाप भी उतने ही तीव्र होंगे। • सामान्य लोग भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए साधना करते हैं, जब कि साधु उनके त्याग की और उनकी
अभिलाषा न करने की साधना करता है। शुद्ध आत्मोपलब्धि ही उसकी साधना का उद्देश्य होता है। राग की स्थिति में मनुष्य का विवेक सुषुप्त हो जाता है। जिस पर राग भाव उत्पन्न होता है, उसके अवगुण उसे दृष्टिगोचर नहीं होते। गुणवान के गुणों का आकलन करना भी उस समय कठिन हो जाता है। यह सत्य है कि मन अत्यन्त चपल है, हठीला है और शीघ्र काबू में नहीं आता। किन्तु उस पर काबू पाना
असंभव नहीं है। बार-बार प्रयत्न करने से अन्तत: उस पर काबू पाया जा सकता है। • किसी उच्च स्थान पर पहुँचने के लिए एक-एक कदम ही आगे बढ़ाना पड़ता है।
धर्म-शिक्षा या अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा मन को वशीभूत किया जा सकता है। जो शरीर के प्रति ममतावान् है, उसे शरीर के प्रतिकूल आचरण करने पर रोष उत्पन्न होता है, किन्तु जिसने शरीर को पर-पदार्थ समझ लिया है और जिसे उसके प्रति किंचित् भी ममता नहीं रह गई है, वह शरीर पर घोर से घोर आघात लगने पर भी रुष्ट नहीं होता।
ज्ञान अपने आप में अत्यन्त उपयोगी सद्गुण है, किन्तु उसकी उपयोगिता विरतिभाव प्राप्त करने में है। • जो विवेकशील साधक विरतिभाव के बाधक कारणों से बचता है, वही साधना में अग्रसर हो सकता है। • सम्यग्दर्शन आदि भाव-रत्न आत्मा की निज सम्पत्ति हैं। इनसे आत्मा को हित और सुख की प्राप्ति होती है। . • जो मनुष्य भोगोपभोग में संयम नहीं रखता, वह प्रलोभनों का सामना नहीं कर सकता। • जिस बुराई को मिटाना चाहते हो उसी का आश्रय लेते हो, यह तो उस बुराई को मिटाना नहीं, बल्कि उसकी
परम्परा को चालू रखना है। समभाव की साधना की विशेषता यह है कि इससे व्यक्तिगत जीवन अत्यन्त उच्च, उदार, शान्त और सात्त्विक
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