Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं • ज्ञान कहाँ से शुरु होना चाहिए? घर से रवाना हुए यह सोच कर कि मंदिर जाना है, उपासरे जाना है या सत्संग में जाना है। तभी से आपके मन में, धर्म की, ज्ञान की बात पैदा होती है। वहीं से शान्त होकर चलना चाहिए। यदि रास्ते में व्यसन की चीज़ का इस्तेमाल किया तो मन और मस्तिष्क पर पवित्र वातावरण का असर नहीं पड़ेगा। लेकिन आज आपका ज्ञान इतना मंद हो चला है कि उससे वातावरण को पवित्र रखने की प्रेरणा ही नहीं मिलती। आज आवश्यकता इस बात की है कि सुनी हुई बात को विचार और चिंतन से दिमाग में रखने के लिए वातावरण पैदा किया जाए।
ज्ञान पंचमी • ज्ञानपचंमी अपने पर्व श्रुतज्ञान के अभ्युदय और विकास की प्रेरणा देने के लिये है। आज के दिन श्रुत के |
अभ्यास, प्रचार और प्रसार का संकल्प करना चाहिए। द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से श्रुत की रक्षा करने का प्रयत्न करना चाहिए। आज ज्ञान के प्रति जो आदर वृत्ति मन्द पड़ी हुई है, उसे जागृत करना चाहिए और द्रव्य से ज्ञान-दान करना चाहिए। ऐसा करने से इहलोक-परलोक में आत्मा को अपूर्व ज्योति प्राप्त होगी और शासन एवं समाज का अभ्युदय होगा। किसी ग्रन्थ, शास्त्र या पोथी की सवारी निकाल देना सामाजिक प्रदर्शन है, इससे केवल मानसिक संतोष प्राप्त किया जा सकता है। असली लाभ तो ज्ञान-प्रचार से होगा। ज्ञानपंचमी के दिन श्रुत की पूजा कर लेना, ज्ञान-मंदिरों के पट खोल कर पुस्तकों का प्रदर्शन कर देना और फिर वर्ष भर के लिए उन्हें ताले में बंद कर देना श्रुतभक्ति नहीं है। ज्ञानी महापुरुषों ने जिस महान् उद्देश्य को सामने रखकर श्रुत का निर्माण किया, उस उद्देश्य को स्मरण करके उसकी पूर्ति करना हमारा कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व है। तप
• जिसके द्वारा संचित कर्म, अन्तर के विकार तपकर-जलकर आत्म-प्रदेशों से पृथक् हो, उस क्रिया का नाम तप है। • तप की परीक्षा क्या? तन तो मुाया-सा लगे, पर मन हर्षित हो उठे। शरीर से ऐसा लगे कि शरीर तप रहा है,
पर मन हर्ष से प्रफुल्लित हो उठे। • आत्मा को पूर्णतः विशुद्ध बनाने के लिये बाह्य तप के साथ-साथ अंतरंग तप भी आवश्यक है। बाहर का तप इसलिये किया जाता है कि जो हमारा अन्तर विषय-कषायों की उत्तेजनाओं से आन्दोलित है, उद्वेलित है, हमारे अन्दर मोह, ममता और मिथ्यात्व का प्राचुर्य है, प्राबल्य है, वह कम हो, उसकी उत्तेजना शान्त हो, उसका प्राबल्य, उसका प्राचुर्य घटे एवं इस तरह उसे घटाते हुए अन्ततोगत्वा आन्तरिक तप से उन विकारों को पूर्णतः समाप्त करना है, उन्हें पूर्णतः नष्ट कर आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को प्रकट करना है। मान लीजिये कि एक भाई ने तीन दिन के लिए खाना बन्द करके तेले की तपस्या कर ली, लेकिन उसने आस्रव को नहीं रोका। एक घड़ी के लिए सत्संग में आया, उसके बाद घर चला गया, बाजार या दुकान घूमता रहा। बाजार में झूठ बोलने का मौका आया, ऊँचा-नीचा देने का कारण बन गया, किसी के साथ झगड़ा हुआ। तेले के तप में भी उसका पाप कितना रुका यह विचार करना चाहिए। • यदि किसी ने उपवास किया, बेला, तेला किया है, लेकिन उसका हिंसा का काम बन्द नहीं हुआ, झूठ बोलना