Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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_ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं का शंकास्पद प्रश्न मन में उठता रहता है और मनुष्य इसी शंका के चक्कर में पड़कर हर क्षण अशान्त एवं दुःखी
बना रहता है। • बड़े-बड़े महाजन लोभ के वशीभूत होकर सब कुछ बर्बाद कर लेते हैं और पीढ़ियों की कमाई हुई अतुल
धनराशि लोभ की वेदी पर भेंट चढ़ा कर फकीर हो जाते हैं।
त्याग • मन से किया गया त्याग ही सच्चा त्याग है। मन तो चाहता है कि त्याग नहीं करूँ लेकिन वस्तु उपलब्ध नहीं है, इसलिए त्याग कर रहा है तो सच्चा त्याग नहीं है - 'न से चाई त्ति वुच्चई ।' जो परतन्त्रता के कारण त्याग करता है तो उसको त्याग का पूरा लाभ नहीं मिलता। इच्छापूर्वक एक नवकारसी भी करे तो वह अपनी कर्म-स्थिति में
लाख वर्ष की कमी करके दुःखों को टाल देता है। • त्याग के साथ ज्ञान का बल ही साधक को ऊँचा उठा सकता है। जैसे सुक्षेत्र में पड़ा हुआ बीज, जल संयोग से
अंकुरित होकर फलित होता है और बिना जल के सूख जाता है, वैसे ही त्याग और ज्ञान भी बिना मिले सफल नहीं होते। जिस साधक में पेय, अपेय, भक्ष्य, अभक्ष्य और जीव-अजीव का ज्ञान न हो वह साधक उत्तम साधक
नहीं होता। • सब कुछ भौतिक सुख वही छोड़ सकता है जिसने दृश्यमान भौतिक जगत् की नश्वरता को, क्षणभंगुरता को समझ कर एक न एक दिन, देर-सबेर में छूट जाने वाली वस्तुओं को स्वतः चलाकर छोड़ने के महत्त्व को, आनन्द
को अच्छी तरह समझ लिया है। • यह सदा याद रखिये कि संसार की जितनी भौतिक साधन-सामग्री है, वह सब विनश्वर है। इस वीतराग-वाणी
को आप कभी न भूलें- “सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा।" • आत्म गुण के अतिरिक्त शेष सब भौतिक भोग-सामग्री, सब वस्तुएँ, सब पदार्थ आप से अलग हो जाने वाले हैं,
क्योंकि वे आपके नहीं हैं। उनका आपसे अलग होना सुनिश्चित ही है,ऐसा समझकर आप उनके प्रति ममत्व भाव का त्याग करें। त्याग-तप
• जिसको आप नफा मानते हैं, वह कभी नुकसान का कारण भी बन सकता है। एक भाई मद्रास में अथवा दक्षिण में कहीं दुकान कर रहा है। उधर लोग बहुत ऊँची दर पर ब्याज लेते देते हैं। उस भाई ने इसके विपरीत अपनी ब्याज सीमा सीमित कर बहुत थोड़ी ब्याज की दर पर रकम देने का कुछ वर्षों पूर्व नियम ले लिया। इस प्रकार का नियम लेने से प्रारंभ में तो उसे बड़ी कठिनाई हुई। पाँच रुपया और छः रुपया तक का ब्याज उधर चलता है। (अब ऐसा नहीं है।) अब यदि कोई पाँच-छ: रुपया प्रति सैकड़ा की दर के स्थान पर डेढ-दो रुपया प्रति सैकड़ा की दर से ब्याज लेना आरम्भ करे तो प्रारम्भ में तो उसे आर्थिक हानि दिखाई देगी ही। अभी कुछ दिनों पहले वह भाई आया और कहने लगा-"महाराज ! आपसे जो नियम मैंने लिया,वह मेरे लिये बड़ा ही लाभकारी रहा। आज वह नियम नहीं होता तो ब्याज के पैसे तो चौगुने हो जाते पर परेशानी इतनी होती कि आराम से खाना हराम हो जाता। वास्तव में त्याग का नियम मेरे लिये व्यवहार में भी लाभदायक