Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
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उपदेश देकर भाई-भाई का खार मिटाकर प्यार कराता है। उसका यह दान कभी नहीं खूटेगा। ऐसा दान देना |
आप सीख जाओगे तो इस दान के आगे आपका द्रव्यदान हजारवाँ या करोड़वाँ भाग भी नहीं है। . कहीं पैसा नहीं होने पर काम अटका हआ है, कहीं पर प्रेरणा नहीं होने से काम अटका है. तो कहीं मतभेद होने |
से काम अटका है। लोगों में भावना हो और सोचें कि धर्म-रक्षा भी हमारा कर्तव्य है, तो समाज का रक्षण हो सकता है। क्षेत्रों को संभालने और उनमें प्रचार करने के लिये समय-दान और द्रव्य-दान दोनों आवश्यक हैं। विचार-दान से भी बहुत सा काम हल हो सकता है। एक आदमी धन कमाता तो है लेकिन विसर्जन नहीं करता, त्यागता नहीं है तो उसका आत्मिक जीवन स्वस्थ नहीं रहेगा। अत: गृहस्थ के लिये दान देना जरूरी है । जैसे हड्डी का भाग नख द्वारा बाहर निकलता है, केश आने बन्द हो जायें, आँखों में गीड़ आना बन्द हो जाय, नाक से मलवा निकलना बन्द हो जाय, कान में ठेठी नहीं आवे, मल और मूत्र आना बन्द हो जाय तो आप सुखी नहीं रह सकेंगे। इसी तरह यदि प्राप्त द्रव्य का त्याग नहीं करेंगे, किसी को पानी या रोटी नहीं देंगे, दान नहीं करेंगे और जो आवे सो तिजोरी में भरते जायेंगे तो इस रास्ते पर चलने वाले आदमी सुखी नहीं रहेंगे। • हजार मिलाने वाला आदमी हजार के अनुपात से त्यागे, लाख मिलाने वाला आदमी लाख के अनुपात से त्यागे
और करोड़ मिलाने वाला करोड़ के अनुपात से त्यागे। यदि इस तरह से द्रव्य का उचित मार्ग से त्याग होगा तो समाज में अहिंसा तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र के प्रचार-प्रसार के जो क्षेत्र हैं, साधु-साध्वियों के उपकार के क्षेत्र हैं,
और भी कई नये क्षेत्र हैं, सब व्यवस्थित चलेंगे। पैसे वाले भाई सोचते हैं कि पैसे की जरूरत है तो हमारे पास माँगने के लिये आयेंगे, तब देंगे। हमारे पास आकर अर्ज करो, चार आदमियों के बीच में मांगों तो थोड़ा एहसान करते हुए देंगे। अरे भाई ! देने का यह | तरीका नहीं है। • हर आदमी को मुक्त हाथ से, खुले दिल से शुभ खाते में, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, जीव-दया, साधर्मी-बन्धु आदि जो
उत्तम क्षेत्र हैं, जहाँ दिया हुआ द्रव्य बहुत ही लाभ का कारण हो सकता है, दान देना चाहिए। • समाज में किसी के पास कपड़ा पहनने के लिए नहीं है तो कपड़े की व्यवस्था कर दी, किसी के पास रहने के लिये मकान नहीं है तो उसके लिये मकान की व्यवस्था कर दी, किसी के लिए दवा की व्यवस्था कर दी, किसी के लिए पोथी की व्यवस्था कर दी, यह सारा का सारा द्रव्य दान है। दीक्षा दीक्षा आत्मा को परमात्मा बनाने का साधन है। आत्मा ही परमात्मा है, यह जैनदर्शन की मान्यता है। आत्मा पर राग, द्वेष एवं मोह का आवरण आया हुआ है। इसी आवरण के कारण आत्मा का असली स्वरूप दिखाई नहीं देता, दीक्षा इस आवरण को हटाने का साधन है। ज्यों-ज्यों आत्मा को त्याग और तपस्या द्वारा तपाया जाता है, त्यों-त्यों राग, द्वेष, मोह आदि नष्ट होते जाते हैं। जिस प्रकार स्वर्ण पर लगा हुआ मैल स्वर्ण के असली रूप को | ढक देता है और अग्नि पर तपाने से मैल नष्ट होकर शुद्ध सोना दिखने लगता है, उसी प्रकार कषाय रूपी मैल नष्ट होने पर परमात्मा का स्वरूप प्रकट होता है।