Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
३८५ बन्द नहीं हुआ, अदत्तादान बन्द नहीं हुआ, किसी से मजाक कर ली तो कुशील का त्याग दूषित हो गया। इस प्रकार तप में भी दोष का त्याग न करना उचित नहीं। एक आदमी उपवास, पौषध नहीं कर रहा है, लेकिन उसने उपवास पौषध करने वालों की सेवा की। सबके आसन बिछाता है, स्थान पूँजता है, दया करने वालों की थाली साफ करता है, तो यह भी एक तरह का तप है। आठ मदों में तपस्या का मद भी एक मद माना गया है। जाति-मद, कुल-मद, बल-मद, रूप-मद, धन-मद, ज्ञान-मद, ऐश्वर्य-मद आदि मदों के साथ यह भी एक मद गिना गया है। कभी अगर ज्ञान का और तप का भी मद यानी अहंकार आ जावे तो वह भी कर्मों के बन्ध को तोड़ने के स्थान पर उनके बन्ध को और प्रगाढ़ बनाने का कारण बन जाता है। तप और ताप में भेद समझें। अज्ञान भाव में विकारी वृत्तियों के वश में होकर तन को और मन को तपाया जाता है, वह ताप है। इसमें व्यक्ति अपने शरीर से भी कष्ट सहता है एवं दूसरे लोगों को भी कष्ट देता है। उसके अन्तर में काम, क्रोध की वृत्तियाँ सुलग रही हैं। अपने किसी बाह्य दुश्मन को मारना है,अमुक व्यक्ति का काम बिगाड़ना है, अमुक से बदला लेना है, उसको नुकसान पहुंचाना है, इस प्रकार की भावना से प्रेरित होकर अगर किसी व्यक्ति ने तप किया, जप किया, उपवास, बेला या तेला आदि किया तो वह तप नहीं ताप है, क्योंकि
उसके भीतर में भी ताप है, मन में भी ताप है और बाहर तन में भी ताप है। • क्रोध के वश, लोभ के वश, मोह के वश और अपने स्वार्थ के वश जो शारीरिक कष्ट सहा जाता है, जो मन की
वृत्तियों पर एक प्रकार का “मानापमाने समः” जैसा अवसर आता है, वह सारा शारीरिक कष्ट है। बिना ज्ञान के खुद कष्ट में पहुँचना और दूसरों को कष्ट देना, धर्म के नाम पर, तप के नाम पर ताप है। इसके विपरीत स्वार्थ को दूर कर, ज्ञानभाव को जगाकर, अपनी वृत्तियों को वश में करना एवं शारीरिक कष्ट सहते हुए भी मन में उल्लास के भाव रखना और क्रोध, मान, माया, विषय, कषाय की वृत्तियों को ढीली पटकना, इस प्रकार का जो काया-कष्ट (कायक्लेश) होता है, वह तप है। कष्ट सहने वाले तो अनन्त जीव हैं और ताप सहने वाले असंख्यात । परन्तु तप
करने वाले केवल संख्यात हैं। • कोई यह कहते हैं कि जैनियों की तपस्या में बेला-तेला-अठाई आदि तप से शरीर की हिंसा होती है, क्योंकि
इनसे शरीर क्षीण होता है। किन्तु ऐसा सत्य नहीं है। यह हिंसा इसलिये नहीं हुई कि शरीर का जो स्वामी है, वह तपस्या से प्रसन्न है। तपस्या करने वाली माताएँ-बहनें सूत्र-श्रवण, स्वाध्याय और प्रभु-स्मरण में अपने को लगाती हुई तप के दिनों में बाह्य शृंगारों का वर्जन करें। विविध प्रकार के भड़कीले वस्त्रालंकार, मेंहदी, पार्टियों के आडम्बर तप के साथ जो लगा लिये हैं, उन्हें छोड़ें। ये सारी बातें तपस्या की शक्ति और इसकी शोभा को कम करने वाली हैं। ये बहनें तप करके अपनी तपस्या के समय को और उसकी शक्ति को मेंहदियाँ लगवाने में, बदन को सजाने में, अलंकारों से सज्जित करने में व्यर्थ ही गंवाती हैं। मेंहदी क्या रंग लाएगी तप के रंग के सामने? रंग तो थे | तपस्याएँ ज्यादा लायेंगी। तपस्या के साथ अगर भजन किया, प्रभु-स्मरण किया, स्वाध्याय किया, चिंतन-मनन |
किया, तो यही रंग सबसे ऊँचा रंग है। • हमारी तपस्या का रूप तो यह है कि तप में अगर किसी दूसरे के काम में बाधा पहुँचती दिखे तो जोर-जोर से |
बोलकर शास्त्रों एवं धर्म-ग्रन्थों का स्वाध्याय करना भी निषिद्ध है। कहाँ तो यह विधि-विधान है और कहाँ तप |