Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं • आरम्भ और परिग्रह की मित्रता है, दोनों का आर्थिक गठजोड़ है, दोनों ऐसे भयंकर रोग हैं, जो हमारी
चेतना-शक्ति को विकास का मौका नहीं देते। , धन की भूख आसानी से जाती नहीं, वृद्ध हो जाने पर भी तृष्णा मानव का पिण्ड नहीं छोड़ती और वह दिन-रात उसके पीछे भागता रहता है। संसार का प्राणी आरम्भ-परिग्रह में फंसा रहता है और यही चाहता है कि दिन और बड़ा होने लगे तो वह चार घंटे और काम कर ले । तृष्णावश सदा उसकी यही मंशा रहती है। यदि वह आरम्भ, परिग्रह के परिमाण को हल्का करने के लिए तैयार नहीं होगा तो आत्म-कल्याण कैसे होगा? इसलिए बुद्धिमान आदमी वस्तुस्थिति को सोचे, समझे, विचारे और आत्मा को हल्का करने के लिए साधना करे। पापाचरण के मुख्य दो कारण हैं। कुछ पाप, परिग्रह के लिए और कुछ आरम्भ के लिए किये जाते हैं। कुछ पापों में परिग्रह प्रेरक बनता है। परिग्रह आरम्भ का वर्द्धक है। अगर परिग्रह अल्प है और उसके प्रति आसक्ति अल्प है तो उसके लिये आरम्भ भी अल्प होगा। इसके विपरीत यदि परिग्रह बढ़ा और अमर्याद हो गया तो आरम्भ | को भी बढ़ा देगा-वह आरम्भ महारम्भ हो जाएगा।
आसक्ति-अनासक्ति • विशिष्ट बुद्धि का धनी मानव रात-दिन यह देखता है कि विषय-कषायों के कारण उसकी बड़ी हानि हो रही है, |
अपूरणीय क्षति हो रही है, तदुपरांत भी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विषय-कषायों में उत्तरोत्तर फंसता जा रहा है। अपने आप को फांसने वाले स्थानों से बचे रहने का प्रयास करने के बजाय उल्टे उनमें फंसते जाने से बढ़कर
मनुष्य के लिए शोचनीय, दुःखद एवं दयनीय स्थिति और क्या हो सकती है? • एक सी प्रवृत्ति में भी वृत्ति की जो भिन्नता होती है उससे परिणाम में भी महान अन्तर पड़ जाता है। जितेन्द्रिय पुरुष के भोजन का प्रयोजन संयम-धर्म-साधक शरीर का निर्वाह करना मात्र होने से वह कर्म-बंध नहीं करता, जबकि रसनालोलुप अपनी गृद्धि के कारण उसे कर्म-बंध का कारण बना लेता है। यही नहीं, साधना-विहीन व्यक्ति रूखा-सूखा भोजन करता हुआ भी हृदय में विद्यमान लोलुपता के कारण तीव्र कर्म बांध लेता है, जबकि साधना-सम्पन्न पुरुष सरस भोजन करता हआ भी अपनी अनासक्ति के कारण उससे बचा रहता है। आहार-शुद्धि
जो सात्त्विक हो, मन को उत्तेजित करने वाला नहीं हो, वह आहार लेने योग्य है। • आचार-शुद्धि के लिए आहार-शुद्धि आवश्यक है। जब आहार शुद्ध होगा तभी विचार सुधरेंगे। और विचार
सुधरेंगे तो आत्म-कल्याण का पथ प्रशस्त होगा। मानव-जीवन का लक्ष्य आचार-शुद्धि से आत्मा को ऊपर उठाना है। माताओं के हाथ से बने भोजन में उन्हें जीवन का खयाल रहता है। बनाने वाली माँ है तो उसको कितना ध्यान रहता है। भैयाजी सुख पावें, उनका मनोबल बढ़े, धर्म की लगन बढ़े, इस भावना से उसने रोटी बनाई है। घर के भोजन में सद्भावना का बल है। शुद्धता और भावना बाहर होटलों में कहाँ? मां, बहन या पत्नी द्वारा बनाये भोजन में उनके जो संस्कार हैं, उसके अनुसार वे पूरा खयाल रखेंगी कि हमारे परिवार में अखाद्य या अग्राह्य चीज न आवे। किसी जीव की हिंसा न हो, खाने वाले स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें। इस तरह की भावना के साथ