Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३७६ • अज्ञानी और ज्ञानी के जीवन में बड़ा अन्तर होता है। बहुत बार दोनों की बाह्य क्रिया एक सी दिखाई देती है, फिर भी उसके परिणाम में बहुत अधिक भिन्नता होती है। ज्ञानी का जीवन प्रकाश लेकर चलता है जबकि अज्ञानी अन्धकार में ही भटकता है। ज्ञानी का लक्ष्य स्थिर होता है, अज्ञानी के जीवन में कोई लक्ष्य प्रथम तो होता ही नहीं, अगर हुआ भी तो विचारपूर्ण नहीं होता। उसका ध्येय ऐहिक सुख प्राप्त करने तक ही सीमित होता है। फल यह होता है कि अज्ञानी जीव जो भी साधना करता है वह ऊपरी होती है, अन्तरंग को स्पर्श नहीं करती। उससे भवभ्रमण और बन्धन की वृद्धि होती है, आत्मा के बन्धन नहीं कटते। 'ज्ञा' धात् से जानने अर्थ में 'ज्ञान' शब्द की सिद्धि होती है। उसका अर्थ होता है-'ज्ञायते हिताहितं धर्माधर्मः येन तद् ज्ञानं' अर्थात् जिसके द्वारा हिताहित या धर्माधर्म का बोध होता है, जो कर्तव्य-अकर्तव्य का और सत्य-असत्य का बोध कराता है, मोक्ष मार्ग का बोध कराता है, उसको ज्ञान कहते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि ज्ञान एक वह साधन है, जिसके द्वारा आत्मा अपनी शक्ति का, सत्यासत्य के बोध में उपयोग कर सके। सत्यासत्य का बोध करने वाले गुण का नाम ज्ञान है। ज्ञान सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी होता है। संक्षेप में कहा जाये तो पदार्थों के स्वरूप की यथार्थ अभिव्यक्ति का नाम सम्यक् ज्ञान है। मोक्ष मार्ग में जिस प्राणी को लगना है, उसके लिए सम्यक् ज्ञान का होना परमावश्यक है। अज्ञान और कुज्ञान से हटकर सम्यक् ज्ञान में जब प्राणी का प्रवेश होगा, तब समझना चाहिए कि वह मोक्ष-मार्ग का पहला पाया या पहला चरण प्राप्त कर सका है। वर्ण-ज्ञान, भाषा-ज्ञान, कला-ज्ञान, लेखन-ज्ञान, पदार्थ-ज्ञान, रसायन-ज्ञान इत्यादि भिन्न-भिन्न ज्ञान हैं। ये मानव को पदार्थ का बोध कराने में सहायक सिद्ध होते हैं, लेकिन जब तक सम्यक् ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक ये सभी लौकिक ज्ञान भव-बंधन को काटने में सहायक नहीं होते। ऐसा ज्ञान जिससे भव-बंधन की बेड़ी काटना सम्भव हो, किसी पुस्तक से, किसी कॉलेज से, किसी विश्वविद्यालय से प्राप्त होने वाला नहीं है। जीव का स्वभाव ज्ञानस्वरूप होने पर भी ज्ञान तब तक प्रकट नहीं होता, जब तक उस पर से आवरण दूर नहीं होता। रोशनी देना सूर्य का स्वभाव होता है। प्रकाश देना सूर्य का स्वभाव है, फिर भी यदि बादल छाए हुए हैं, धुंध छाई हुई है या धूल जमी हुई है तब तक सूर्य की रोशनी नहीं मिलती है। इसी तरह आत्मा में जो ज्ञान का गुण है, उसको रोकने वाला कर्मावरण है। पहला आवरण है मिथ्यात्व, दूसरा आवरण है कषाय तथा तीसरा आवरण है ज्ञानावरणीय कर्म। अज्ञान के हटते ही ज्ञान प्रकट हो जाता है। सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करने के लिए मोह कर्म, ज्ञानावरणीय कर्म और अन्तराय कर्म का क्षयोपशम जरूरी होगा। केवल ज्ञानावरणीय कर्म का
क्षयोपशम हो जाए और मोह आदि क्षय नहीं हो तो ज्ञान का सम्यक् होना सम्भव नहीं है। • ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? मिथ्यात्व और अज्ञान के हटने से। मिथ्यात्व और अज्ञान की गांठ कैसे कटेगी? ज्ञान || होगा तब । इसलिए इनका परस्पर सम्बंध है। एक को दूसरे की अपेक्षा है। शास्त्रकार ने कहा है:
“नादंसणिस्स नाणं।" • जब तक मानव के मन में सच्ची श्रद्धा नहीं होगी, तब तक ज्ञान पैदा नहीं होगा और दूसरी तरफ जब तक ज्ञान
प्राप्त न हो जाए, तब तक सच्ची श्रद्धा नहीं होगी। इस तरह इन दोनों का परस्पर सम्बंध है।। • मोक्ष का पहला सोपान, पहली सीढ़ी ज्ञान है। ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर संसार से ममता हट जायेगी। धन की