Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
और कुटुम्ब की ममता की बेड़ियों का बंधन ढीला हो जाएगा। इससे व्यावहारिक जीवन में भी फर्क पड़ेगा। • चाहे छोटी क्रिया हो अथवा बड़ी क्रिया, वस्तुतः ज्ञान और विवेक से उस क्रिया की चमक बढ़ती है। जिस क्रिया || में ज्ञान और विवेक का पुट नहीं है, वह क्रिया चमकहीन हो जाती है।
'नाणं सुझाणं चरणस्स सोहा।' • उत्तम ध्यान वाला 'ज्ञान' चारित्र एवं तप की शोभा है। जिसके भीतर की ज्ञान-चेतना जागृत हो गई, वह आत्मा बिना सुने, बिना पढ़े भी ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करती है, जैसे नमिराज की ज्ञान-चेतना चूड़ियों की झंकार को सुनकर जागृत हो गई। मृगापुत्र ने मुनियों को देखकर ज्ञान प्राप्त कर लिया। ऐसे अनेक उदाहरण शास्त्र व साहित्य में उपलब्ध होते हैं। ऐसा भी उदाहरण उपलब्ध होता है कि चोर को वध-स्थल पर ले जाते देखा और समुद्रपाल को ज्ञान उत्पन्न हो गया। यद्यपि चोर ज्ञान-प्राप्ति का निमित्त नहीं है, लेकिन सोचने वालों ने उसे अपनी ज्ञान-चेतना को जागृत करने का साधन बनाया। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञान अपने अनुभव से भी प्राप्त किया जा सकता है और सन्त-समागम एवं उपदेश से भी मिलाया जाता है। आज सर्वसाधारण के लिए संत-समागम का साधन सुलभ है। अधिकांश लोगों को अधिकांश ज्ञान सत्संग के साधन से ही उपलब्ध होता है। लेकिन अनुभव जगाकर अपने ज्ञान-बल से भी बहुत से व्यक्ति वस्तुतत्त्व का बोध प्राप्त कर सकते हैं। जिसने जीव और पुद्गल का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर आत्मतत्त्व को पहचान लिया हो, जिसकी बुद्धि परिपक्व हो
और उसमें ज्ञान के साथ वैराग्य हो तो उसको कोई खतरा नहीं रहता। जैसे दीपक में तेल है और बत्ती ठीक स्थिति में है तो हवा के साधारण छोटे-मोटे झोंकों से वह दीपक बुझ नहीं सकता। लेकिन यदि तेल ही समाप्त हो गया तो वह दीपक साधारण-सा झोंका पाकर भी बुझ जाएगा। इसलिए क्या गृहस्थ जीवन में और क्या त्यागी जीवन में, यदि हम चाहते हैं कि जीवन कुमार्ग और कुसंगति में पड़कर गलत रास्ते पर नहीं लगे, तो श्रुत-ज्ञान का जल अधिक मात्रा में डालना चाहिए, तभी खतरे से बचे रहेंगे। ज्ञान का धर्म यह है कि वह मानव जीवन में एक विशेष प्रकार का प्रकाश प्रदान करता है। ज्ञान केवल वस्तुओं
को जानना मात्र ही नहीं है। • ज्ञान, वस्तुतः मूल में एक है। उसके पाँच भेद अपेक्षा से, व्यवहार से, किये गये हैं। केवल-ज्ञान का प्रकाश आप
में, हम में मौजूद होते हुए भी जब तक पुरुषार्थ का जोर नहीं लगे और कर्मों का पर्दा नहीं हटे, तब तक प्रगट नहीं होता। जैसे चकमक पत्थर में आग की चिनगारी है लेकिन उसे रगड़ा न जाए तो वह नहीं निकलती। धूम्रपान करने वाले किसान लोग छोटी-सी डिबिया रखा करते हैं, एक नली रखा करते हैं, जिसमें वे कपड़े की बत्ती रखते हैं। ज्यों ही बटन दबाया पाषाण में घर्षण होता है और आग लग जाती है। बीड़ी जल जाती है और बीड़ी, सिगरेट पीने वालों का काम बन जाता है। किन्तु जब तक वह डिबिया पाकेट में बंद है, वह महीना, दो महीना या चार महीना वहीं पड़ी रही तो उसमें चिनगारी नहीं निकलेगी। जैसे एक चकमक की पेटी और उस पाषाण में ज्योति मौजूद है, पर घर्षण के बिना प्रकट नहीं होती, ठीक उसी तरह आप में, हम में ज्ञान की ज्योति है, लेकिन उस ज्योति को प्रकट करने के लिए घर्षण आवश्यक है। घर्षण किससे? ज्ञान प्रकट करने के लिए ज्ञानी से घर्षण हो तो ज्ञान प्रकट होता है। अज्ञानी से बातचीत कर रहे होंगे तो लड़ाई होगी, झगड़ा होगा और यदि समाज में कोई व्यक्ति प्रिय या अप्रिय बात निकालेगा तो भी झगड़ा हो जाएगा। किसी अज्ञानी या बुरे