Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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चाहिए। • गुरु के अनेक स्तर हैं, अनेक दर्जे हैं, जिनको गुरु कहा जाता है, लेकिन वे सभी तारने में, मुक्त करने में सक्षम
नहीं होते। आचार्य केशी ने बतलाया है कि आचार्य तीन प्रकार के होते हैं-कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य । यदि कोई व्यक्ति कृतज्ञ स्वभाव का है और उपकार को मानने वाला है, तो उसको जिसने दो अक्षर। सिखाए हैं, उसके प्रति भी आदर भाव रखेगा। जिसने थोड़ा सा खाने-कमाने लायक व्यवसाय प्रारम्भ में सिखाया है, उसको भी ईमानदार कृतज्ञ व्यक्ति बड़े सम्मान से देखेगा। इसी प्रकार जो शिल्पाचार्य हैं और उन्होंने अपने शिष्यों को शिल्प की शिक्षा दी है, उनके प्रति भी शिष्यों को आदर भाव रखना चाहिए। किन्तु कलाचार्य और शिल्पाचार्य को प्रिय है धन । जो भक्त जितनी ज्यादा भेंट-पूजा अपने गुरु के चरणों में चढ़ायेगा उसको कलाचार्य और शिल्पाचार्य समझेगा कि यही शिष्य मेरा अधिक सम्मान करता है, लेकिन धर्माचार्य की
नजर में उसी शिष्य का सम्मान है, जिसने अपने जीवन को ऊँचा उठाने के लिए साधना की है। • सद्गुरु होने की प्रथम शर्त यह है कि वह स्वयं निर्दोष मार्ग पर चले और अन्य प्राणियों को भी उस निर्दोष मार्ग | पर चलावे । सद्गुरु की इसलिए महिमा है। मनुष्य जैसा पुरुषार्थ करता है , वैसा भाग्य निर्माण कर लेता है। इतना जानते हुए भी साधारण आदमी शुभ मार्ग में पुरुषार्थ नहीं कर पाता। कारण कि जीवन-निर्माण की कुंजी सद्गुरु के बिना नहीं मिलती। जिन पर सद्गुरु की कृपा होती है, उनका जीवन ही बदल जाता है। आर्य जम्बू को भर तरुणाई में सद्गुरु का योग मिला तो उन्होंने ९९ करोड़ की सम्पदा, ८ सुन्दर रमणियों एवं माता-पिता के दुलार को छोड़कर त्यागी बनने का संकल्प किया। राग से त्याग की ओर बढ़कर उन्होंने गुरुपूजा कर सही रूप उपस्थित किया। शिष्य के जीवन में गुरु ही सबसे बड़े चिकित्सक हैं। जीवन की कोई भी अन्तर समस्या आती है तो उस समस्या को हल करने का काम और मन के रोग का निवारण करने का काम गुरु करता है। कभी क्षोभ आ गया, कभी उत्तेजना आ गई, कभी मोह ने घेर लिया, कभी अहंकार ने, कभी लोभ ने, कभी मान ने और कभी मत्सर ने आकर घेर लिया तो इनसे बचने का उपाय गुरु ही बता सकता है। • निर्ग्रन्थ, जिनके पास वस्तुओं की गाँठ नहीं होती- आवश्यक धर्मोपकरण के अतिरिक्त जो किसी तरह का संग्रह
नहीं रखते हैं, वे ही धर्मगुरु हैं। साधुओं के पास गाँठ हो तो समझ लेना चाहिए कि ये गुरुता के योग्य नहीं हैं। . चोरी
• गृहस्थ-जीवन में जो भी व्यक्ति चोरी से विलग रहता है, वह सम्मानीय माना जाता है। सड़क पर नाजायज
कब्जा, सरकारी या दूसरे व्यक्ति की भूमि पर अवैधानिक अधिकार आदि भी चोरी का ही रूप है। • वास्तव में मानव समाज के लिए चोरी एक कलंक है। गृहस्थ को संसार में प्रतिष्ठा का जीवन बिताना है और परलोक बनाना है तो वह चोरी से अवश्य बचे। भारतीय नीति में चोरी चाहे पकड़ी जाए या नहीं पकड़ी जाए, दोनों हालत में निन्दनीय, अशोभनीय और दंडनीय कृत्य है। चोरी या अनीति का पैसा सुख-शान्ति नहीं देता। वह किसी न किसी रूप में हाथ से निकल जाता है। कहावत भी है कि चोरी का धन मोरी में।