Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
३६१
आत्म-स्वरूप
क्या वेश्या और क्या कसाई, सभी मूलतः अन्तर में निर्मल ज्योति स्वरूप होते हैं। सबमें समान चैतन्य धन विद्यमान है। परन्तु आत्मा की वह अन्तर-ज्योति और चेतना दबी हुई और बुझी हुई रहती है। पर जब एक प्रकार की रगड़ उसमें उत्पन्न होती है तो वह आत्मा जागृत हो जाती है। मूल स्वभाव को देखा जाए तो कोई भी आत्मा कसाई, वेश्या या लम्पट नहीं होती। वह शुद्ध बुद्ध और अनन्त आत्मिक गुणों से समृद्ध है, निष्कलंक है। हीरक कण मूल में उज्ज्वल ही होता है फिर भी उस पर धूल जम जाती है, उसमें गन्दगी आ जाती है। इसी प्रकार शुद्ध चिन्मय आत्मा में जो अशुद्धि आ गई है, वह भी बाहरी है, पर-संयोग से है, पुद्गल के निमित्त से आई
आदर्श एवं यथार्थ विश्व की एकता का नारा लगाने वाले व्यक्ति कभी मिलेंगे तो कहेंगे-जातीयता में कुछ नहीं पड़ा है, प्रान्तीयता में कुछ नहीं है, अब राष्ट्रीयता भी कुछ नहीं है। अब तो अन्तर्राष्ट्रीय की कल्पना करके उसका खाका खीचेंगे। उनकी बात सुनकर जनता विस्मित रह जाती है। लेकिन उनके घर पर जाकर आप दृश्य देखिये, भाई-भतीजों
और बच्चों से इस प्रकार लड़ते हैं कि आप देख कर दंग रह जायेंगे। यह दीवार तुमने इधर क्यों बना ली? खेत की रेखा टेढ़ी-मेढ़ी क्यों खींच ली? इसके लिए आपस में जूती पैजार तक हो जाता है, मारपीट हो जाती है और | न्यायालयों के द्वार खटखटाये जाते हैं। आदर्शवाद का यह कितना क्रूर मजाक है? जरा सोचें। • आदर्शवाद और यथार्थवाद दो मुख्यवाद हैं। आदर्शवाद सुनने में, देखने में अच्छा लगता है। जिस समय
आदर्शवादी लोग बात करते हैं, उस समय कहते हैं-"हम तो सबकी मानते हैं, सबकी सुनते हैं, हमारे लिए सब मत-मतान्तर बराबर हैं। हमें न तो किसी से द्वेष है, और न किसी से प्यार ।” ऐसी बातें करते हैं, तब वे बातें सुन्दर लगती हैं। लेकिन उनका असली जीवन टटोलें तो पता चलेगा कि अपने ही कुटुम्ब के लोगों तथा समाज | व साधर्मियों के साथ उनका व्यवहार कैसा है? जो व्यक्ति अपने समीप के लोगों से ही समान व्यवहार नहीं कर सकते, वे व्यक्ति देश, देशान्तर और जातियों के भेद मिटाने की कामना करें, तो यह प्रवंचना ही है। आरम्भ-परिग्रह अर्थनीति मनुष्य को लोभी, कपटी व अशान्त बनाती है। मानव मानव को लड़ाती है, जबकि धर्मनीति प्राणिमात्र | में बंधुत्व भाव उत्पन्न करती है। क्रोध की आग में प्रेम का सिंचन करती है। • दो कारणों से जीव केवली के प्रवचन को भी नहीं सुन सकता। गौतम ने जिज्ञासा भरा प्रश्न किया-“हे भगवन् !
कौनसे दो कारण हैं, जो उत्तम धर्म श्रवण में बाधक हैं?" प्रभु ने कहा-“आरम्भ और परिग्रह–इन दोनों में जो जीव उलझा है, वह इन्हें अच्छी तरह समझकर जब तक इन उलझनों की बेड़ी को काटकर बाहर नहीं निकल
जाता, तब तक केवली प्ररूपित धर्म को नहीं सुन सकता।" • परिग्रह, आरम्भ को छोड़कर नहीं रहता। आरम्भ से ही परिग्रह बढ़ता है। परिग्रह अपने दोस्त को बढ़ाने का भी
बड़ा ध्यान रखता है। वह जितनी चिन्ता आरम्भ को बढ़ाने की करता है, उसकी शतांश भी संवर-निर्जरा को बढ़ाने की नहीं करता।