Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
वृद्ध और अतिकृश व्यक्ति के अतिरिक्त सबके लिए उपवास लाभकारी है।
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. एकता
• मानव जितना ही गुण-ग्राहक और सत्य का आदर करने वाला होगा, उतना ही ऐक्य-निर्माण सरल एवं स्थायी हो ||
सकेगा। 'कारणाभावे कार्याभावः' , इस उक्ति के अनुसार भेद के कारण मिटने पर भेद स्वयं ही समाप्त हो जाते
जैन संघ में एकता का नारे लगाने वाले एवं बोलने वाले हैं, फिर भी एकता क्यों नहीं ? लौकिक एकता भय, लोभ और स्वार्थ पर आश्रित होती है, परन्तु धर्म की एकता गुणानुराग या शासन प्रेम पर आधारित होती है। जब तक राग-द्वेष के कारण समाप्त नहीं किये जाते, बाहरी दिखावे से स्थिरता नहीं आती। हमारी एकता विचार-आचार के धरातल पर होती है। जैन समाज का इतिहास बताता है कि श्रावकों ने संघ की अखण्डता का कैसा रक्षण किया और इनके सहयोग से कैसे पलभर में झगड़े मिट गये। आज समाज मातृहृदय तो है, पितृ हृदय भक्तों की आवश्यकता है। आज का युग मिलजुल कर काम करने का है। सामाजिक हो या धार्मिक, हर कार्य मिली-जुली शक्ति से ही अधिक प्रभावशाली और सफल होता है। राष्ट्र भी एक-दूसरे की नीति, रीति और मतभेद की उपेक्षा कर पारस्परिक सहयोग में अपना और विश्व का हित मान रहे हैं, फिर भला धार्मिक सम्प्रदायें साधारण रीति, नीति
और समाचारी के भेद से एक दूसरे से बिल्कुल दूर रहे, समानताओं का उपयोग नहीं कर पावे तो धर्म शासन की शोभा एवं तेजस्विता कैसे बढेगी। राष्ट्र के अधिकारी राग द्वेष युक्त होते हैं और धर्माधिकारी वीतरागता एवं समता के पथिक होते हैं, अत: उनके मन में छोटी - छोटी बातों से मनभेद होना शोभनीय नहीं होता। राष्ट्रों में व्यापार, संचार, औद्योगिक क्षेत्रादि में | संधि होती है, वैसी धर्म-सम्प्रदायों में भी आंशिक सन्धि हो सकती है। कार्य की सफलता में ध्यान रखने योग्य एक आवश्यक बात यह है कि व्यर्थ नुकताचीनी नहीं की जाय । कोई भी उचित बात कहता है तो उसकी कद्र करो। संवाद भले कर लो, किन्तु विवाद नहीं करो। अपने और दूसरों के समय का मूल्य समझो और समाज-सेवा के लिये एक शक्ति से कुछ कार्य करके दिखाओ। चुप रहने वालों को यह नहीं समझना चाहिए कि हमारी कोई कीमत नहीं; किन्तु उन्हें यह समझ कर सन्तोष करना चाहिये कि बोलने वाले हमारे ही प्रतिनिधि हैं। , कार्य प्रणाली में भेद होते हुए भी निर्मल भाव से एक दूसरे के सम्मान को सुरक्षित रखते हुए बंधुभाव से काम करना चाहिए।
कर्मवाद • यदि अपनी आत्म-शक्ति को विकसित करना है तो उस पर पड़ा हुआ जो कर्म का मलबा है, उसे साफ करना होगा। उस मलबे को कोई अलग से हमाल आकर हटाएगा नहीं। इस मलबे को हटाने का कार्य हमें स्वयं को ही करना होगा। हाँ, किसी बाहरी मित्र का सहयोग उसी तरह से ले सकते हैं जिस तरह कोई कारीगर अथवा मकान-निर्माता किसी ठेकेदार या इन्जीनियर से उचित मार्ग-दर्शन प्राप्त करता है क्योंकि मार्ग-दर्शक अनुपम