Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
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भांगे और भगवती सूत्र के भांगे पढ़ते समय इस प्रकार तल्लीन हो जाते हैं, उसमें इस प्रकार रमण कर जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि उनकी एक सामायिक आई है या दो आई है। लेकिन भांगे पढ़ने वाले, उपयोग लगाने वालों के सामने जब चाँदी आती है, पैसा सामने आता है तब एक नम्बर के बजाय दो नम्बर भी कर जाते हैं। शास्त्र का ज्ञान नहीं करना चाहिए, भगवती नहीं पढ़ना चाहिए, यह कहने का मेरा उद्देश्य नहीं है। मेरा || मतलब यह है कि ज्ञान के साथ जीवन में चारित्र नहीं, आचरण नहीं, व्यवहार-शुद्धि नहीं है तो वह ज्ञान ऊँचा उठाने के बजाय नीचे गिराने वाला बन जाता है। वह ज्ञान जीवन ज्योति जगाने के बजाय उसको खुद को भी |
और धर्म को भी बदनामी की ओर ले जाने वाला हो जाता है। • यदि विषय-कषाय नहीं घटते हैं तो कहना चाहिए कि अब तक हमारे जीवन में चारित्र नहीं आया है। • हमेशा याद रखिए कि आदमी की पूजा ज्ञान से नहीं हुई है, आदमी की पूजा अधिकार और स्थिति से नहीं हुई है, उसकी पूजा उसके रूप और वैभव से नहीं हुई है । उसकी पूजा यदि हुई है तो उसके चारित्र से हुई है। रावण के पास ज्ञान था, ऋद्धि थी, सम्पदा थी, लेकिन उसमें चारित्र नहीं था, इसलिए आज कोई उसका नाम रखने
को तैयार नहीं हैं। • प्राणी सदा कुछ न कुछ करता रहता है, कभी निष्क्रिय नहीं रहता। किन्तु उसको यह ज्ञान नहीं होता कि कौन सा
कर्म करणीय है और कौन सा अकरणीय। बहुत बार वह ऐसे कर्म करता है कि अपने आपको उलझा लेता, फंसा लेता है। अतः ज्ञानियों ने कहा-विवेक करो, कुकर्म से अपना सुकर्म की ओर मोड़ बदलो। चींटी रात-दिन चक्कर काटती है फिर भी कोई मूल्य नहीं। उसके लिए कोई लक्ष्य नहीं है । चोर भी कर्म करता है, रात को गली में वह भी घूमता और संरक्षक दल भी घूमता है, पर एक का भ्रमण कुकर्म रूप है जबकि दूसरे का सुकर्म रूप। एक भयभीत रहता है तो दूसरा निर्भय आवाज मारता है। इसीलिए ज्ञानी कहते हैं कुकर्म से सुकर्म में आओ तो साधना करते अकर्म हो जाओगे।
आजीविका । संसार में दो तरह से पेट भरा जाता है, एक तो आर्य कर्म से, जिसमें हिंसा कम हो, कूड़-कपट छल-छिद्र, धोखा
आदि के बिना ही काम करके अपना गुजारा चला लें। दूसरा वह जिसमें धोखा देकर, झूठ बोलकर, गुमराह करके, सरकारी टैक्स की चोरी करके पैसा मिलाया जावे। इन दोनों में फर्क है। गृहस्थी के लिए धंधा करना मना नहीं है, लेकिन छल कर्म करके महा आरम्भ का धंधा करना मना है। अच्छा गृहस्थ अपने खाने-पीने में और अन्य खर्च में भी कमी करके गुजर करना मंजूर करेगा, लेकिन महापाप का धंधा नहीं करेगा। मच्छियों का धंधा करने वाले व्यक्ति किन्हीं सेठजी के पास आकर कहे कि पचास हजार रुपये दे दो, कोई धंधा करना है। पांच रुपया सैकड़ा ब्याज दूंगा, ऊँचे से ऊँचा ब्याज दूँगा तो सेठजी उसको रुपया ब्याज पर देंगे या नहीं ? सेठजी प्रत्यक्ष में पाप नहीं करेंगे, मच्छियों का व्यापार नहीं करेंगे, बन्दरगाह पर बकरों को नहीं पहुंचायेंगे, | किन्तु ऋण लेने वाला यदि उस रकम से हिंसा का कार्य करता है तो ऋण देने वाला भी पाप का भागी बनता है, | यह जानने की जरूरत है।