Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
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ही वह अपने शत्रु पर उस आग के गोले का प्रहार कर सकेगा। शत्रु सावधान हुआ तो पैंतरा पलट कर उस आग के गोले से बच भी सकता है। क्रोध, आदि कषाय आग के गोले के समान हैं। जिस प्रकार आग का गोला सर्वप्रथम उस उठाने वाले को ही जलाएगा, उसी प्रकार क्रोध, आदि कषाय सर्वप्रथम क्रोध, मान, माया, लोभ करने वाले व्यक्ति की ही हिंसा करेंगे। क्रोध करने वाला व्यक्ति अपनी हिंसा करने के पश्चात् ही अन्य
की हिंसा कर सकेगा। • संसार की चौरासी लाख जीव-योनियों में से मनुष्य योनि की, मानव-जीवन की यही तो एक सबसे बड़ी विशेषता है कि अन्य सब जीवों की अपेक्षा मानव ने जो विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया है, उसके उपयोग द्वारा वह अपनी, अपने आत्म-गुणों की और पर की अर्थात् अन्य प्राणियों की हिंसा करने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सर्वस्वापहारी शत्रुओं से अपनी रक्षा कर सकता है। मानवजन्म प्राप्त करने की सार्थकता इसी में है कि हम चिन्तन द्वारा अपने ज्ञानगुण का उपयोग कर अपनी और पर की हिंसा से अपने आप को बचा लें। अहिंसा का सकारात्मक पक्ष सेवा, दया और करुणा में है। इस क्षेत्र में साधु अपनी मर्यादा में रहते हुए समाज को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे हैं। विकलांगों का जीवन भी स्वावलम्बी एवं सुखी बने, इस दिशा में भी समाज के कर्णधारों को कोई ठोस कदम उठाने चाहिए। अहिंसा व्रत
अहिंसा को निर्मल रखने के लिए साधक को पूर्ण सावधान होना आवश्यक है। गृहस्थ को पशुओं की रक्षा एवं | बाल-बच्चों की शिक्षा हेतु कभी बाँधने एवं ताड़ना-तर्जना करने की भी जरूरत होती है। पर सद्भावना और हितबुद्धि के कारण वह हिंसा का कारण नहीं होता। जहाँ-जहाँ कषाय का वेग हो वहाँ आत्मा परवश हो जाता है। वैसी स्थिति में स्व-पर के हित का ध्यान नहीं रहता। अतः उसका वध-बंधन हिंसा का कारण होने से अहिंसा को मलिन करने वाला है। कई लोग क्रोध में इतने बेसुध हो जाते हैं कि बच्चों के हाथ-पैर तोड़ देते हैं, गुस्से में बच्चे डूब मरते या भाग छूटते हैं। अतः अहिंसक को इस ओर बड़ा ध्यान रखना है। सर्वप्रथम तो उसे बिना मारे ही काम चला लेना चाहिए। मारपीट से बच्चों की आदत भी बिगड़ जाती है, फिर वे बात की धाक नहीं मानते, रोज के पीटने से उनमें भय भी नहीं रहता। अतः सद्गृहस्थ को अहिंसा-व्रत की रक्षा के लिए इन दोषों से बचना लाभकारी है। • अहिंसा की निर्मलता के लिए वध एवं बंध की तरह तीन दोष अन्य हैं- छविच्छेए , अइभारे, भत्तपाणवुच्छेए।
पुत्र-पुत्री के कर्णवेध आदि किए जाते हैं। रोग निवारण के लिए भी अंग काटे जाते हैं और शल्य क्रिया की जाती है। इनमें दुर्भाव नहीं है। पशुओं को जल्दी चलाने या क्रोध के वश कील गड़ा देना, चमड़ा काट देना, जलती सलाई से निशान कर देना अहिंसा भाव के विपरीत है। यह हिंसा का कारण है। पहले के तीन दोष क्रोध एव मोहवश लगते हैं, जबकि पीछे के दो दोष लोभवश होते हैं। स्टेशन से घर आते समय सामान के लिए मजदूर की आवश्यकता होती है। आप पैसा बचाने के लिए किसी बच्चे को मजदूरी देते हैं, उस समय बालक की शक्ति का बिना विचार किये उसके सिर पर पेटी और गांठ रख देना, तांगे में चार सवारी से ज्यादा बैठना , लोभ से गाड़ी में ४ बोरी अधिक भरना व्रत का अतिभार दोष है। मुनीम से अधिक टाइम तक काम लेना, उसके स्वास्थ्य और बल का खयाल न