Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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- अहिंसा/हिंसा • भगवान् महावीर का अहिंसा का उपदेश ऐसा है कि उसमें उन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षी आदि का कोई भेद नहीं | रखा। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में फरमा दिया-"सचे पाणा, सव्वे भूया, सब्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतव्वा "
"सचे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्ख पडिकूला।" सब्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिडं। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥
जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा। ते जाणमजाणं वा, न हणे णो वि घाइए। सयं तिवायए पाणे, अदुवन्नेहिं घायए।
हणंतं वाणुजाणाइ वेरं वइ अप्पणो । अर्थात्- किसी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये । यही धर्म शुद्ध शाश्वत और नित्य है। सभी प्राणी दुःख से दूर रहना और जीना चाहते हैं। कोई प्राणी मरना नहीं चाहता, अतः किसी प्राणी की हिंसा करना घोरातिघोर महापाप है। इसीलिये संसार में जितने भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी हैं, उनमें से किसी भी प्राणी की जानकर अथवा अनजान में न स्वयं हिंसा करे और न दूसरे से उनकी हिंसा करवाए। जो व्यक्ति स्वयं किसी प्राणी की हिंसा करता है अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किसी प्राणी की हिंसा करवाता है या किसी भी प्राणी की हिंसा करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन करता है, वह प्राणि-वध के साथ अपने अनन्तानुबन्धी वैर का बन्ध करता है। • माताओं में जीवदया का ज्यादा प्रेम होता है। अगर उनके सामने जीवदया के नाम पर कोई पानड़ी जाएगी तो वे
जरूर उसमें कुछ न कुछ लिखायेंगी। वे पढ़ाई-लिखाई का उतना महत्त्व नहीं जानतीं,जीवदया को जानती हैं। पर उनको इसके साथ इस पर विचार करना होगा कि रेशमी, मखमल के कपड़ेमहाआरम्भ समारम्भ से निर्मित वस्तुओं से तैयार किये गये वस्त्र हिंसामूलक साज-सज्जा एवं शृंगार वगैरह के प्रसाधन जो हैं, वे त्याज्य हैं। उनको त्याज्य समझ कर वे इन पदार्थों को और ऐसे वस्त्रों को घर में नहीं बसायेंगी,न इनको आने देंगी और न
बढ़ावा देंगी। इस तरह से अगर वे करेंगी, तो यह सक्रिय रूप से अहिंसा का पालन कहलायेगा। • केवल किसी को जान से मारना ही हिंसा नहीं है। किसी पर बल प्रयोग करना भी हिंसा का एक रूप है। किसी
को परितापना देना,दुःख देना,धोखाधड़ी करना आदि भी हिंसा के रूप हैं। व्यवहार में किसी के साथ लेन-देन कर लिया,सौदा तय हो गया,जमीन-जायदाद अथवा किसी भी वस्तु का, कालान्तर में उनके भाव बढ़े और सौदे से इन्कार कर दिया। अथवा सामने वाले ने आप पर विश्वास किया, हजारों के माल का आर्डर दिया। लालच में आकर जैसा बताया वैसा माल नहीं भेजा, उसमें भेल-संभेल कर दिया, हल्का माल मिला दिया। नये माल के साथ कुछ पुराना माल भी निकालना है, यह सोचकर खराब माल भी उसमें मिलाकर भेज दिया। ऊन में, कपास में, खाद्यान्नों में या किसी भी वस्तु में इस तरह की धोखाधड़ी करना आदि हिंसा के नानाविध रूप हैं। द्रव्य-हिंसा की अपेक्षा भाव-हिंसा अधिक भयानक, दारुण दुःखदायक और आतंकपूर्ण होती है। एक व्यक्ति अपने शत्रु को, अपने विरोधी को मारने के लिए जलाने के लिए ज्वालाएं उगलता हुआ आग में प्रतप्त लोहे का लाल-लाल गोला उठाता है, तो पहले स्वयं उसके ही हाथ जलेंगे। अपने हाथ जलाने के पश्चात्