Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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• प्रभात के समय अवश्य वीतराग का ध्यान करो, चिन्तन करो, स्मरण करो और वीतराग की प्रार्थना करके बल प्राप्त करो।
आत्मिक शान्ति प्राप्त करने के लिए मन को शान्त और स्वस्थ रखने के लिए प्रार्थना के लिए स्वाध्याय और सत्संग के लिए एकान्ततामय धर्मस्थान ही उपयुक्त हो सकता है ।
आत्मोत्थान के लिए ज्ञान और चारित्र की अनिवार्य आवश्यकता होती है ।
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• यह मन बहुत बार इधर-उधर विषय-भोगों की तरफ भटकता रहता है, मगर प्रार्थना मन को स्थिर करके आत्मा को ताकत देती है ।
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धर्म को बाधा पहुँचा कर अर्थ और काम का सेवन करना जीवन की पंगुता है और पंगु जीवन अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर नहीं सकता ।
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ज्यों-ज्यों राग और द्वेष की आकुलता कम होती जाती है और ज्ञान का आलोक फैलता जाता है, त्यों-त्यों अन्त:करण में शान्ति का विकास होता जाता है। 1
यदि हम परमात्मा के सत्स्वरुप को लक्ष्य करके प्रार्थना करेंगे तो हमारा निशाना खाली नहीं जाएगा, हमारा प्रयत्न विफल नहीं होगा। हमारी आत्मा के विकार सदा के लिए दूर हो जाएँगे ।
जिसके पास आत्मबल है, उसके पास परमात्मबल है। जिसके आत्मबल का दिवाला निकल चुका है, उसे परमात्मबल भी प्राप्त नहीं होता ।
जिसे आत्मबल प्राप्त है, वह सदा शान्त, अडोल और अकम्प रहता है, संसार की कोई पौद्गलिक वस्तु या कोई घटना उसके चित्त की समाधि को भंग नहीं कर सकती ।
• भक्ति की भावना से और ज्ञान-गंगा के निर्मल नीर से प्रार्थना आत्मा की मलिनता को दूर करने के लिए है। किन्तु यदि शल्य रह गया है, पर्दा रह गया है, कहीं किसी प्रकार का कपटभाव बना रह गया है, तो वह आत्मा पूर्ण रूप से शुद्ध होने में समर्थ नहीं होगी ।
जैसे समुद्र में डाला हुआ कंकर दूसरे ही क्षण अदृश्य हो जाता है, उसी प्रकार जब परमात्मा की स्तुति, चिन्तन और ध्यान में मन विलीन हो जाता है और जब संसार के समस्त जंजालों से पृथक् होकर तन्मय बन जाता है तो समस्त शोक, सन्ताप एवं आधिव्याधियाँ गायब हो जाती हैं ।
• जब आत्मा की ज्योति चमक उठती है और आन्तरिक तिमिर दूर हो जाता है, तब बाहर की जितनी भी आधि-व्याधि और उपाधियां प्रतीत होती हैं और जीवन में उनके अनुभव की जो कटुता होती है, वह सब नष्ट हो जाती है।
• आत्मा का सजातीय द्रव्य परमात्मा है। अतएव जब विचारशील मानव संसार के सुरम्य से सुरम्य पदार्थों में और सुन्दर एवं मूल्यवान वैभव में शान्ति खोजते खोजते निराश हो जाता है, तब उनसे विमुख होकर निथरते- निथरते पानी की तरह परमात्म-स्वभाव में लीन होता है। वहीं उसे शान्ति और विश्रान्ति मिलती है।
जिनका चित्त स्वच्छ नहीं है वे परमात्म सूर्य के तेज को ग्रहण नहीं कर सकते ।
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• दिल का दर्पण जब तक स्वच्छ नहीं होता, स्थिर नहीं होता या निरावरण नहीं होता तब तक शाब्दिक गुनगुनाहट