Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
बीज को खाता हुआ भी उसे बोना नहीं भूलता। बीज के लिये अच्छे दाने सुरक्षित रखता है। , यदि परीक्षा में बच्चों को नैतिक व्यवहार के भी अङ्क दिए जाएं तो बच्चे देश के लिए वरदान हो सकते हैं।
'स्वाध्याय' संस्कार का बड़ा साधन है। • परिग्रह छूटेगा तो आरम्भ स्वत: कम हो जायेगा। • परिग्रह से मनुष्य की मति आकुल और अशान्त रहती है। अशान्त मन में धर्म-साधना नहीं होती। . धर्म पहले इहलोक सुधारता है, फिर परलोक । धर्म से पहले इस जीवन में शान्ति मिलती है, फिर आगे। • धर्म मानव-जीवन के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना वायुसेवन । |. कामना के जाल को वही काट सकता है, जिसके पास ज्ञान का बल है। • मनुष्य जीवन का महत्त्व व्रत-नियम से है। • राजनीति दण्ड से जीवन-सुधार चाहती है और धर्मनीति प्रेम से मन बदल कर। • आत्मसुधार का एक निश्चित क्रम है - १. जीवन सुधार २. मरण सुधार और ३. आत्मसुधार । • अनर्थदण्ड के प्रमुख कारण हैं- १. मोह २. प्रमाद और ३. अज्ञान । • किसी की उन्नति देखकर ईर्ष्या करना या उसकी हानि की सोचना अनर्थदण्ड है।
अपध्यान में बाहरी हिंसा नहीं दिखती, परन्तु वहां अन्तरंग हिंसा है। • अपध्यान वहाँ होता है, जहाँ तीव्र आसक्ति है। • मनुष्य को ज्ञान का तीर लगे तो एक ही काफी है और नहीं लगे तो जन्मभर सुनते रहने पर भी कोई लाभ नहीं
होता। • मनुष्य के मन पर माया की झिल्ली आने से वह सत्तत्त्व को नहीं देख पाता और सत्कर्म में चल भी नहीं सकता। पारिवारिक प्रार्थना, साप्ताहिक स्वाध्याय सुसंस्कार के साधन हैं। इनके साथ निर्व्यसनी, प्रामाणिक और शुद्ध
व्यवहार वाला होना आवश्यक है। • जिसके द्वारा हित-अहित, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य और धर्माधर्म का बोध हो, वही सच्चा ज्ञान है। ज्ञान के बिना विज्ञान |
जीवन में हितकारी नहीं हो सकता। तप के साथ क्रोध आदि विकारों का त्याग करना उसका भूषण है। कहा है-सोहा भवे उग्गतवस्स खंती।"| अर्थात् क्षमाभाव से उग्र तपस्या की शोभा है। बाहरी विषमता दूर करने से शान्ति नहीं होगी। उससे कुछ समस्याएं हल हो सकती हैं, पर शान्ति के लिए समता
आवश्यक है। • गृहस्थ-जीवन दान-शील प्रधान है और मुनि-जीवन तप-संयम प्रधान है।
बालक के संस्कार-निर्माण में पिता से अधिक मातृजीवन कारण होता है। अरिहन्त कहते हैं-यदि ज्ञानी बनना है तो मोह-माया का पर्दा दूर करो। ज्ञान का प्रकाश बाहर नहीं, तुम्हारे ही || भीतर है।