Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं जीवन-रथ को कुमार्ग से बचाकर सन्मार्ग पर चलाने के लिए और अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए योग्य गुरु
की अनिवार्य आवश्यकता है। • अनुकूल निमित्त मिलने पर जीवन बड़ी तेजी के साथ आध्यात्मिकता में बदल जाता है। . जिस प्रकार खाने से ही भूख मिटती है, भोजन देखने या भोज्य-पदार्थों का नाम सुनने से नहीं; इसी प्रकार धर्म |
को जीवन में उतारने से, जीवन के समग्र व्यवहारों को धर्ममय बनाने से ही वास्तविक शान्ति प्राप्त हो सकती
|. ज्ञानी पुरुष का पौद्गलिक पदार्थों के प्रति मोह नहीं होता। . जो लोग आहार के सम्बन्ध में असंयमी होते हैं, उत्तेजक भोजन करते हैं, उनके चित्त में काम-भोग की अभिलाषा |
तीव्र रहती है। वास्तव में आहार-विहार के साथ ब्रह्मचर्य का बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। • मनुष्य के मन की निर्बलता जब उसे नीचे गिराने लगती है तब व्रत की शक्ति ही उसे बचाने में समर्थ होती है। • व्रत अंगीकार नहीं करने वाला किसी भी समय गिर सकता है। उसका जीवन बिना पाल की तलाई जैसा है, किन्तु व्रती का जीवन उज्ज्वल होता है। एक मनुष्य अगर अपने जीवन को सुधार लेता है तो दूसरों पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। पुद्गल एवं पौद्गलिक पदार्थों की ओर जितनी अधिक आसक्ति एवं रति होगी, उतना ही आन्तरिक शक्ति का | भान कम होगा। सम्यग्दृष्टि जीव में दर्शनमोहनीय का उदय न होने से तथा चारित्रमोहनीय की भी तीव्रतम शक्ति (अनन्तानुबन्धी कषाय) का उदय न रहने से मूर्छा-ममता में उतनी सघनता नहीं होती जितनी मिथ्यादृष्टि में होती है। जब तक परिग्रह पर नियन्त्रण नहीं किया जाता और उसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं की जाती तब तक हिंसा
आदि पापों का घटना प्राय: असंभव है। • जब तक मनुष्य इच्छाओं को सीमित नहीं कर लेता तब तक वह शान्ति नहीं पा सकता और जब तक चित्त में |
शान्ति नहीं, तब तक सुख की संभावना ही कैसे की जा सकती है? परिमाण कर लेने से तृष्णा कम हो जाती है और व्याकुलता मिट जाती है। जीवन में हल्कापन आ जाता है और एक प्रकार की तृप्ति का अनुभव होने लगता है। मन में सन्तोष नहीं आया तो सारे विश्व की भूमि, सम्पत्ति और अन्य सुख-सामग्री के मिल जाने पर भी मनुष्य शान्ति प्राप्त कर नहीं सकता।
पेट की भूख तो पाव दो पाव आटे से मिट जाती है, मगर मन की भूख तीन लोक के राज्य से भी नहीं मिटती। • एक अकिंचन निस्पृह योगी को जो अद्भुत आनन्द प्राप्त होता है वह कुबेर की सम्पदा पा लेने वाले धनाढ्य को
नसीब नहीं हो सकता। • अमर्यादित धन-संचय की वृत्ति के पीछे गृहस्थी की आवश्यकता नहीं, किन्तु लोलुपता और धनवान् कहलाने की
अहंकार-वृत्ति ही प्रधान होती है। • किसी महापण्डित का मस्तिष्क यदि समाज और देश की उन्नति में नहीं लगता तो उसका पाण्डित्य किस काम