Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
(३२४
• यदि मूर्छाभाव है तो शरीर भी परिग्रह है और वस्त्रादि भी। • परिग्रह दुःख व बन्धन का कारण है। • अपनी संपदा का उपयोग करना सीखेंगे तो आपका परिग्रह अधिकरण बनने के बजाय उपकरण बन जायेगा। • परिग्रह का सम्बन्ध जितना चीजों से, वस्तुओं से नहीं, उतना मन से है। • परिग्रह व बन्धन की गांठ को ढीली करोगे तो बाहर की सामग्रियाँ तुम्हारे पास रहकर भी दुःखदायी नहीं बनेंगी।
धन के लिये नीति-अनीति को भुलाना, यह जैन का लक्षण नहीं है। सच्चा जैन लक्ष्मी-दास नहीं, अपितु
लक्ष्मी-पति होता है। • धन कदापि तारने वाला नहीं, केवल धर्म ही तारने वाला है।
जो व्यक्ति जितना अधिक संयम से रहेगा वह उतना ही अधिक सुखी और सब तरह से स्वस्थ रहेगा। • संयम सब प्रकार के दुःखों के मूल कारण पाप से बचाने वाला और अन्ततोगत्वा अक्षय सुख का दाता है। • जीवन में प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रत्येक कार्य में संयम रखना चाहिए। . चारित्र-धर्म का पहला चरण है-तन और वाणी पर संयम। • तन, मन, वाणी भोगोपभोगादि और विषय-कषायों का संयम धर्म का प्रमुख अंग है। • जीवन में यदि धर्म व चारित्र नहीं है, तो जीवन फीका है। • मुनियों के सौम्य जीवन और त्यागमय चर्या का चिन्तन करके भी व्यक्ति ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है। • भूमि, जायदाद आदि से ज्यादा सोच आपको ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का होना चाहिये, क्योंकि ये आपके |
निज-गुण हैं। • जब तक हमारा सम्यग्ज्ञान मजबूत रहेगा, तब तक हम कभी नहीं डिगेंगे। • सामायिक वह महती साधना है, जिसके द्वारा जन्म-जन्मान्तरों के संचित कर्म-मल को नष्ट किया जा सकता है। • आसन-विजय, दृष्टि-विजय और मन-विजय - ये तीनों प्रकार की साधनाएँ सामायिक में परमावश्यक हैं। • सही रूप में प्रायश्चित्त तभी होगा जबकि गलती करने वाला व्यक्ति मन में यह विचार करे कि वास्तव में उसने
गलती करके बुरा काम किया, उसे इस प्रकार की गलती नहीं करनी चाहिये थी। • गुरुजनों के समक्ष यदि कोई व्यक्ति अपनी गलती के किसी भी अंश को छुपा कर रखता है, तो वह प्रायश्चित्त
न होकर एक और नई गलती करना हो जायेगा। • व्यर्थ ही द्रव्य लुटाकर थोथा आडम्बर दिखाना, कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। सच्चे अर्थ में शासन की प्रभावना के
अनेक रास्ते हैं। • तप राग घटाने की क्रिया है। तप के समय ऐसे काम होने चाहिए जिनसे राग की भावना घटे, वैराग्य की भावना
बढ़े।
जो नैतिक दृष्टि से पतित हो वह धार्मिक दृष्टि से उन्नत कैसे हो सकता है ? नैतिकता की भूमिका पर ही धार्मिकता की इमारत खड़ी होती है।