Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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अमृत-वाक्
(आचार्यप्रवर के प्रवचनों एवं दैनन्दिनी से संकलित वचन)
. श्रुत-धर्म जीवन में ज्ञान और श्रद्धा उत्पन्न करता है और चारित्र-धर्म जीवन-सुधार का कार्य करता है।
यदि मानव में सच्चरित्रता का बल नहीं हो तो शास्त्रों का ज्ञान, वक्तृत्व-कला, निपुणता और प्रगाढ़ पाण्डित्य
व्यर्थ हैं। • आचार का मूल विवेक है। चाहे कोई श्रमण हो अथवा श्रमणोपासक, उसकी प्रत्येक क्रिया विवेकयुक्त होनी
चाहिए। • समभाव वह लोकोत्तर रसायन है जिसके सेवन से समस्त आन्तरिक व्याधियाँ वैभाविक परिणतियाँ नष्ट हो जाती
• धर्म उसी के मन में रहता है जो निर्मल हो । माया और दम्भ से परिपूर्ण हृदय में धर्म का प्रवेश हो ही नहीं |
सकता। चित्त में आराध्य, आराधक और आराधना का कोई विकल्प न रह जाना-तीनों का एक रूप हो जाना अर्थात् भेद ||
प्रतीति का विलीन हो जाना ही सच्ची आराधना है। • जिसका वियोग होता है, वह सब पर-पदार्थ है, जिसे आत्मा राग-भाव के कारण अपना समझ लेता है।
निज गुणों को प्रकट करने में परमात्मस्वरूप का चिन्तन एवं गुणगान निमित्त होता है। • सामायिक की अवस्था में मन, वचन और काया का व्यापार अप्रशस्त नहीं होना चाहिए।
योगसाधना का सबसे बड़ा विघ्न लोकैषणा है। • नाना प्रकार की लब्धियाँ योग का प्रधान फल नहीं हैं। अध्यात्मनिष्ठ योगी इन्हें प्राप्त करने के लिये योग की |
साधना नहीं करता। ये तो आनुषंगिक फल हैं। • जब तक अन्तःकरण में पूर्णरूपेण मैत्री और करुणा की भावना उदित नहीं होती तब तक आत्मा में कुविचारों की
कालिमा बनी रहती है और शुद्ध आत्मस्वरूप प्रकट नहीं होता। राग-द्वेष की परिणति निमित्त पाकर उभर आती है। अतएव जब तक मन पूर्ण रूप से संयत न बन जाए, मन पर पूरा काबू न पा लिया जाय, तब तक साधक के लिये यह आवश्यक है कि वह राग-द्वेष आदि विकारों को
उत्पन्न करने वाले निमित्तों से भी बचे। • मानव स्वभाव की यह दुर्बलता सर्व-विदित है कि जब छूट मिलती है तो शिथिलता बढ़ती ही जाती है।
संसार को सुधारना कठिन है, परन्तु साधक स्वयं अपने को सुधार कर, अपने ऊपर प्रयोग करके दूसरों को प्रेरणा दे सकता है।