Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
विश्वास नहीं होता है, तो भी पिछड़ जाता है। जीवनी शक्ति को बनाये रखने के लिये जितना खाना आवश्यक है, उतने का परिमाण कर लें, उससे अधिक न | खाएं। साधारणत: देखा जाता है कि प्राय: सभी व्यक्तियों की अधिकाधिक खाने की इच्छा रहती है और जब पेट मना कर देता है, तभी वे खाना बन्द करते हैं।
कम बोलना और ज्यादा करना है, जिससे आपका बोलना और करना समाज के लिए वरदान सिद्ध हो सके। • स्तुति करने वाले शंका करते हैं कि प्रभु तारने वाले नहीं, फिर स्तुति क्यों? उनको समझना चाहिए कि
प्रभु-भक्ति तुम्ब की तरह तारक है। मन की मशक में प्रभु-भक्ति एवं सद्-विचार की वायु भरने से आत्मा हल्की होकर तिर जाती है। यदि मोह का बंधन ढीला करने के लिए भक्ति का मार्ग अपना लिया जाए तो मोह दब जायेगा। यदि मोह की । जड़ भक्ति की अपेक्षा अधिक सबल होगी तो निश्चय ही भक्ति दब जाएगी। प्रभु शक्ति में विश्वास रखने वाला आदमी भौतिक चीजों को सहज ही में ठोकर मार देता है। • शान्ति और समता के लिए न्याय-नीतिपूर्वक धर्म आचरण ही श्रेयस्कर है।
अज्ञान और मोह के दूर होने पर भीतर में आत्मबल का तेज जगमगाने लगता है। • स्वाध्याय चित्त की स्थिरता व पवित्रता के लिए सर्वोत्तम उपाय है।
शास्त्र ही मनुष्य का वास्तविक नयन है। 'भाव' क्रिया का प्राण है। भावहीन क्रिया फलदायी नहीं होती । • मिथ्या विचार, मिथ्या आचार और मिथ्या उच्चार असमाधि के मूल कारण हैं।
जिनका चित्त स्वच्छ नहीं है, वे परमात्म सूर्य के तेज को ग्रहण नहीं कर सकते। • आत्मा के लिए परमात्मा सजातीय है और जड़ पदार्थ विजातीय । सजातीय द्रव्य के साथ रगड़ होने पर ज्योति
प्रकट होती है और विजातीय के साथ रगड़ होने से ज्योति घटती है। • जिससे जड़ चेतन, आत्मा-परमात्मा व बंध-मोक्ष का ज्ञान हो, उसको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। • बन्धन संसार है और चारित्र इसे काटने की क्रिया है।
जैसे घर से निकल कर धर्मस्थान में आते हैं और कपड़े बदलकर सामायिक-साधना में बैठते हैं, उसी तरह कपड़ों के साथ-साथ आदत भी बदलनी चाहिए और बाहरी वातावरण तथा इधर-उधर की बातों को भूल कर बैठना चाहिए। आध्यात्मिक साधना में दृढ़संकल्पी होना, मत्सर भावना का त्याग करना और सम्यग्दृष्टि रखना परम आवश्यक
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• इच्छा की बेल को काटे बिना और समभाव लाये बिना सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। • धन रोग और शोक दोनों का घर है, जबकि धर्म रोग और शोक दोनों को काटने वाला है। • जो खुशी के प्रसंग पर उन्माद का शिकार हो जाता है और दुःख में आपा भूलकर विलाप करता है वह इहलोक