Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं होती ही रहती है। मन चाहता है कि पुण्यात्मा के पुनीत दर्शनों का लाभ मिल जाए, ये प्यासे नयन दर्शन लाभ पाकर धन्य बन जायें, दिव्य वचनामृत पान कर कर्णयुगल पावन बन जायें।
श्रमण संघ के श्रद्धेय उपाध्यायप्रवर श्री पुष्करमुनि जी म.सा., उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी प्रभृति मुनिवृन्द ने क्षमा - याचना के पत्र का २० मार्च १९९१ को खण्डप के निकट मोरड़ा से जो पत्र प्रेषित कराया उसका कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत है_ "पत्र पढ़कर हृदय गद्गद् हो उठा। आचार्यप्रवर एक महान् जागरूक पवित्र आत्मा हैं जिनके अन्तर्हदय से क्षमा-याचना जैसी शब्दावली प्रगट हुई है। आप कितने महान् हैं इस शब्दावली से स्पष्ट घोषित है । अपराध छोटों से हो सकता है, बडों से नहीं। वर्षों से आपकी असीम कृपा हमारे पर रही है। आपश्री श्रमण संघ में थे, तब चिरकाल तक साथ में रहने के प्रसंग भी आए। साथ में कार्य करने का अवसर भी प्राप्त हुआ। पर किन्हीं विशेष कारणों से आपश्री ने श्रमण-संघ से त्याग-पत्र दे दिया। तो भी आपका हार्दिक स्नेह पूर्ववत् ही चलता रहा।" ___पूज्य श्री पन्नालालजी म.सा. की परम्परा के प्रवर्तक श्री सोहनलाल जी म.सा. द्वारा १४ मार्च | | १९९१ को देवलिया कलां (जिला अजमेर) से लिखवाए गये पत्र का अंश - ___ “आचार्य श्री स्वयं अप्रमत्त एवं जागरूक संयम शील महान् आत्मा हैं, उनका सान्निध्य ही समाज की धरोहर है। वे अपनी आत्म-साधना में निरन्तर सयत्न रहे हैं एवं अनेकों भव्यात्माओं को भी जागरूक कर अनन्त उपकार | किया है। प्रवर्तक श्री जी पुन: आचार्य श्री जी म.सा. के चरणों में वन्दन अर्ज कर सुख शान्ति पुछवाते हैं।"
गोहाना रोड जीन्द से शासन प्रभावक श्री सदर्शनलाल जी म.सा. के द्वारा प्रेषित १४ मार्च ९१ का
संदेश-.
“आपश्री जी वीरप्रभु के जिनशासन के देदीप्यमान रत्न एवं उज्ज्वल शृंगार हैं। त्याग-तप-स्वाध्याय-प्रवचन -प्रभावना एवं अनाग्रहवृत्ति के मूर्तिमन्त स्वरूप हैं। ज्योतिर्धर आचार्यों की आठ गणि सम्पदाओं एवं विद्वद्वरेण्य वाचकों की सारणा, वारणा एवं धारणा रूप लोकोत्तर शक्तियाँ आपश्री में साक्षात् परिलक्षित होती हैं।"
डेह (नागौर) से आचार्यकल्प श्री शुभचन्द्र जी म.सा. द्वारा १४ अप्रेल ९१ को प्रेषित सन्देश -
“परम पूज्य आचार्य प्रवर ने महान् कल्याणकारी वीतराग भगवान् के सिद्धान्तों के अनुसार यावज्जीवन | अनशन स्वीकार करके सुदीर्घ संयमी जीवन के साथ महत्त्वपूर्ण अध्याय जोड़ा है। धन्य हैं आचार्य श्री जो सेनापति | की भाँति जीवन-क्षेत्र में वीरता से कदम बढ़ाते हुए विजयश्री के वरण हेतु प्रस्तुत हुए हैं। देह की नश्वरता को समझ कर अपना ममत्त्व त्याग कर आत्मस्थ होने के लिए आत्म-यज्ञ प्रारम्भ किया है, जो वस्तुत: स्तुत्य एवं स्पृहणीय है।" ____ जयपुर से तेरापंथ संघ के आचार्य श्री तुलसी जी से भी संदेश प्राप्त हुआ – “आप श्री ने अत्यन्त श्रेष्ठ कार्य किया है। जिस उत्कृष्ट समाधियोग में आप बढ़े हैं, मेरी यही मंगल कामना है कि अन्त समय तक वैसे ही उत्कृष्ट परिणाम बने रहे। __त्रिस्तुतिक समुदायवर्ती जयन्तशिशु मुनि श्री धर्मरत्नविजयजी महाराज द्वारा १७ अप्रेल ९१ को औरंगाबाद से प्रेषित सन्देश का अंश____“सचमुच आपकी यह पहल सराहनीय है और रहेगी। भविष्य में लिखे जाने वाले इतिहास के मुख्य पृष्ठों पर यह विवरण उत्साहवर्धकता पूर्वक स्वर्णाक्षरों में अंकित होगा तथा वर्तमान में आस्तिक एवं नास्तिक दोनों प्रकार के