Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३०४ रही। सुशीला भवन के शय्यातर श्री सोहनलालजी गंगवाल ने भी अध्यात्मयोगी के चरणों में सेवा का अपर्व लाभ लेकर स्वयं को कृतकृत्य समझा। • निमाज बना तीर्थधाम
संथारे का समय व्यतीत हो रहा था। अनन्त उपकारी, परमाराध्य, तपोधन, श्रमणश्रेष्ठ आचार्य गुरुवर्य की अन्तिम सेवा के स्वर्णिम सुयोग को अपना अहोभाग्य समझ कर सभी मुनिवृन्द सर्वत:समर्पित भाव से गुरुचरण सेवा एवं सान्निध्य का अनुपम लाभ उठा रहे थे। किसी भी शिष्य का मन गुरुचरणों को क्षण भर के लिये भी छोड़ने का नहीं होता, आवश्यक कार्यवशात् इधर-उधर जाना पड़ता, परन्तु मन वहीं लगा रहता था। यही संकल्प रहता कि कार्य सम्पन्न होते ही पूज्य भगवन्त की सेवा में जाकर बैठे। उस अलौकिक तेज:पुञ्ज की प्रशान्त मुख-मुद्रा से दृष्टि हटती | ही नहीं थी, मन अघाता ही नहीं, नयन परितृप्त ही नहीं होते थे।
ज्यों-ज्यों संथारे का समय आगे बढ़ रहा था, दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी। समीपवर्ती नगरों व आसपास के क्षेत्रों से भक्तगण ही नहीं वरन् जाति,धर्म व सम्प्रदाय की दीवारों से परे सभी वर्गों के लोग एक बार दर्शन कर जैसे परितृप्त ही नहीं हो पाते, घर लौटने पर भावना पुन: पुन: दर्शन की होती और वे भावुक भक्तजन सहज ही योगिवर्य के दर्शन को लौट पड़ते तो दूरस्थ क्षेत्रों के भक्तजन व दर्शनार्थी बन्धु भी अपने व्यवसाय व काम-काज को छोड़ दर्शन-लाभ लेने हेतु उमड़ पड़े। सैकड़ों हजारों भक्तगण तो परम पूज्य गुरुदेव के अंतिम सान्निध्य, मंगल दर्शन व संघ-सेवा की पावन समर्पित भावना से अपनी गृह-सुविधाओं व कारोबार का मोह छोड़ सपरिवार निमाज में ही बस गए। हर व्यक्ति की भावना यही रहती कि पुन: पुन: परम पावन गुरुदेव के मंगल दर्शन करते रहें, अधिकाधिक समय जप, तप व स्वाध्याय में लीन रहें, यथाशक्ति अधिकाधिक नियम-व्रत अंगीकार कर अपने जीवन को आगे बढ़ाएँ । दर्शनार्थियों के सतत आवागमन से वह गंगवाल भवन का विशाल परिसर भी छोटा पड़ गया, बाहर राजमार्ग से ही दर्शनार्थियों की कतारें लग जातीं। इन अनुपम योगी की एक झलक देखने को हजारों दर्शनार्थी बन्धु, अनुशासित ढंग से घण्टों पंक्ति में खडे रहकर भी थकते नहीं, सभी का यही एकमात्र लक्ष्य कि कब नम्बर आवे, कब पतित-पावन गुरुराज के पावन मंगलमय दर्शन का लाभ मिले। गुरु के इस दरबार में सभी समान थे, न कोई विशिष्ट न कोई सामान्य ।
युवा कार्यकर्तागण स्वयंसेवक के रूप में उत्साह, अभिरुचि व कुशलता से संघ के कार्यकर्ताओं के निर्देशानुसार, अपने कर्तव्य के पालन व संघ-सेवा में सन्नद्ध थे। कोई परिसर के बाहर दर्शनार्थी बन्धुओं को कतारबद्ध खड़े रहने का विनम्र अनुरोध करते, कोई परिसर के भीतर अनुशासित व्यवस्था बनाये रखने, शांति बनाये रखने में संलग्न रहते तो कुछ कार्यकर्ता गुरुदेव जहाँ विराज रहे थे, वहाँ दर्शनार्थियों को दर्शन हो और नये दर्शनार्थियों को प्रतीक्षा न करनी पड़े, यह व्यवस्था सम्भाल रहे थे। सभी साथीगण परस्पर स्नेह, सौहार्द एवं प्रेमभाव से बारी-बारी से अदल-बदल कर व्यवस्था सम्पादन में अपना सहयोग दे रहे थे। अनन्य गुरुभक्त श्री तेजराजजी भण्डारी, श्री गणेशमलजी भण्डारी दोनों भ्रातागण अपने पूरे परिवार व निमाज सकल संघ के सभी साथियों के साथ एक ओर गुरुसेवा व वहाँ विराजित सभी सन्त-सतीगण की सेवा में सन्नद्ध थे, दूसरी ओर आगत हजारों स्वधर्मी भाइयों व दर्शनार्थियों की सेवा का लाभ ले रहे थे। निमाजवासी कार्यकर्तागण प्रात: सूर्योदय के पूर्व ही सेवा में जुट जाते व देर रात तक संघ सेवा का लाभ लेते रहते। प्रात: सूर्योदय के पश्चात् प्रतिलेखन होते-होते गुरुदर्शन को लालयित भक्तों की लम्बी कतार लग जाती जो मध्याह्न १२ बजे तक अनवरत चलती रहती। पुन:१-१.३० बजे