Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३१४ | किसी भौतिक लाभ की नहीं, बस इसी अन्तिम आदर्श और उत्तम समाधिमरण की मन: कामना करनी है।" २२ अप्रेल १९९१
-जयमुनिजी म.सा., गोहाना मण्डी (हरियाणा)
"पूज्य हस्तीमलजी म.सा. स्थानकवासी समाज ही नहीं, जिनशासन के एक ऐसे ज्यतिर्मान नक्षत्र थे, जिनसे जीवन भर | | सम्यक् ज्ञान और चारित्र का प्रकाश प्रस्फुटित होता रहा।
पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ने अपने रत्नत्रयात्मक व्यक्तित्व का सुदीर्घ साधना के साथ विकास किया जो प्रत्येक श्रमण-श्रमणी के लिए संभव नहीं हो पाता।
ऐसे परिपक्व, स्थिर और कर्मठ व्यक्तित्व का अभाव हो जाना समाज के लिए दुःखद ही कहा जा सकता है। श्रमण चेतना का सुव्यवस्थित नवनिर्माण तो कठिन है, किन्तु सुनिर्माणित सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व उठ जाना जिनशासन के अनुयायियों के लिए अपूरणीय क्षति ही बन जाया करती है। स्वर्गीय पूज्य आचार्य श्री के अभाव को हम ऐसी ही क्षति के रूप में अनुभव कर रहे हैं। स्वर्गीय पूज्य श्री न केवल स्वयं त्याग-तप, साधना और ज्ञान की जीवन्त प्रतिमा थे, अपितु उन्होंने समाज में सम्यक् ज्ञान-साधना के सामयिक विस्तार हेतु अपनी सीमा में अथक प्रयल किए।" २३ अप्रेल १९९१
-श्री सौभाग्यमुनि जी कुमुद, कदमाल
सुरलोक को जाते हैं सब, पर आपका जाना अलग, देह भिन्न और भिन्न आत्मा, तप-संथारा किया सजग । जन-जन को सन्मार्ग से जोड़ा, ग्राम नगर में पहुँचा डग, सामायिक की विरलमूर्ति, भूल न सकेगा सारा जग ॥
जीवन उत्तम मरण भी उत्तम, साधक थे वे सर्वोत्तम, प्रमाद नहीं जीवन में पल भी, करुणामति पुरुषोत्तम । युगप्रभावक महामनीषी, सन्तरत्नों में रत्नोत्तम सीख उनसे थोड़ी भी ले लें, शीघ्र बनेंगे हम उत्तम ॥