Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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(प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
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इस युग की महान हस्ती आचार्यप्रवर का जीवन एक गुलदस्ता ही था जिनके अणु-अणु में संयम साधना की भीनी-भीनी गन्ध परिव्याप्त थी। लघु उम्र में ही भोग से योग की ओर, राग से विराग की ओर, भुक्ति से मुक्ति की ओर जिनके पावन चरण बढ़े थे, श्रद्धाधार पूज्य स्व. श्री शोभाचंद्र जी म.सा. की पवित्र निश्रा में संयम-सुधा का पान करने के लिये कृत-संकल्प हुए थे। गरिमा महिमामण्डित तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, संतरत्न की विद्वत्ता, योग्यता का आकलन कर आपको २० वर्ष की अल्पायु में ही आचार्य जैसे महान पद पर प्रतिष्ठित किया गया, जिसका आप श्री ने सम्यक् प्रकार से निर्वहन किया था।
सद्गुणों की महान् सुरभि लुटाकर वह दिव्य ज्योति न जाने कहाँ विलीन हो गयी? १३ दिवस की महान् तप-साधना एवं आत्म-साधना में लीन रहकर वह युग पुरुष हम सभी को छोड़कर देवताओं के प्रिय बन गए। रह रहकर आचार्यप्रवर की दिव्य भव्य मंजुल छवि नयनों के सामने साकार सी होने लगी। प्यासे नयन दर्शन पाने के लिये | समुत्सुक बने हुए हैं। अतृप्त कर्ण सुमधुर वाणी-पीयूष का पान करने के लिये लालायित बने हुए हैं। कहाँ खोजें उस मंजुल मूर्ति को ?" २४ अप्रेल १९९१
-जिनशासन प्रभाविका श्री यशकुंवर जी म.सा., हुरड़ा
"हमारी उनकी चरणों में अगाध आस्था थी और उनकी भी हम पर, हमारे मुनिसंघ पर में निर्व्याज , अहैतुकी कृपा रही थी। हम उनकी कृपा के चिरऋणी रहेंगे तथा उनकी स्मृतियों को अपने हृदय में सदा जीवित रखेंगे। वे पण्डितमरण स्वीकार करके अपना भव-भ्रमण घटा गए और सबके लिए एक आदर्श छोड़ गए।" । २२ अप्रेल १९९१
-शासन प्रभावक श्री सुदर्शनलालजी म.सा., गोहानामण्डी
"इस महान दिव्य पुरुष की सर्व विशेषताओं को शब्दश: प्रकट नहीं किया जा सकता। उन्होंने अपने समस्त साधना-काल को गन्ध हस्ती की तरह सर्वथा अप्रमत्त एवं जागरूक भावेन जीया है । यद्यपि उनके पावन चरणों में हमें यत्किंचित् ही रहने का लाभ मिला, तो भी हम मुनिराज इस बात को गौरवपूर्ण ढंग से कह सकते हैं कि वे हमारे हृदय के अन्तरतम प्रदेश में विराजित कुछ ही इष्टतम साधकों में से एक थे। उनसे हमें जो आत्मीय स्नेह हार्दिक भाव एवं अत्यन्त उदारपूर्ण मृदु व्यवहारमय कृपाप्रसाद मिला है वह हमारे जीवन का सुरक्षित अक्षय कोष ही रहेगा।' '२८ अप्रेल १९९१
-ओजस्वी वक्ता श्री प्रकाश मुनि जी म.सा., मुम्बई -
“आचार्यप्रवर ने संथारा करके अपने जीवन-भवन के उच्चशिखर पर देदीप्यमान स्वर्णकलश जड़ दिया है और देव दुर्लभ आत्म-कल्याण के लक्ष्य को अधिगत कर लिया है। दिल्ली से आए सुश्रावक श्री सुकुमाल चन्दजी तथा सुश्राविका सुदर्शना जी जब भावविभोर होकर आचार्य प्रवर के संथारे का प्रत्यक्ष हाल बता रहे थे तब एकाएक गुरु महाराज ने उन्हें फरमाया, “सुदर्शना जी! अब यदि आप पुन: निमाज जाएँ तो आचार्यप्रवर के श्रीचरणों में हमारी तरफ से भी अर्ज करना कि जीवन की अन्तिम वेला में हमको भी संथारा आए। उनके सुखद वरद चरणों से और