Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
३०७ प्रत्यक्ष प्रमाण था। वे योगिवर्य तो जहाँ कहीं विराजे, वही क्षेत्र तीर्थधाम बन गया, जहाँ उनके कदम पड़े, वह भूमि | पावन बन गई।
अन्तर्लीन उन योगिवर्य के दर्शनार्थ जाति, वय, धर्म व पंथ की सभी दीवारें ढह गई थीं। जीवन पर्यन्त जो श्रमण-श्रेष्ठ अपनी अमोघ वाणी से लाखों श्रद्धालुओं को प्रेरित करते रहे, आज उनका संथारा हजारों दर्शनार्थी बन्धुओं की सुषुप्त अन्तर्चेतना को जागृत कर रहा था। आगत व्यक्तियों की जुबान पर रह-रह कर यह बात व्यक्त हो उठती कि इतने बड़े आचार्य प्रवर का संथारा हमने अपने जीवन में न देखा, न सुना। हाँ, आज से १९६ वर्ष पूर्व हुए महाप्रतापी आचार्य श्री जयमलजी म.सा. के संथारे की गाथाएँ अवश्य सुनी हैं।
आज पूज्य गुरुदेव के तप संथारे के १३वें दिन रविवार होने से सहज अवकाश का प्रसंग था। अथाह जनसमूह उत्ताल तरंगों की भांति समाधिलीन गजेन्द्र गुरुराज के पावन दर्शन करने को उपस्थित था। सूर्योदय की किरणों के साथ ही विविध दिशाओं से आ रहे दर्शनाभिलाषी जनसमूह लम्बी कतारों में दर्शन हेतु खड़े थे। दिन चढ़ते-चढ़ते जनसमूह ने अत्यन्त विशाल रूप ले लिया था। बाहर राजमार्ग से ही प्रारम्भ कतारे अनवरत आगे बढ़ते रहने पर भी समाप्त नहीं हो पा रही थीं। • चौविहार-त्याग ____ आज पूज्य गुरुदेव के श्वास में कुछ तेजी नजर आ रही थी। सभी संतगण व सतीवृन्द गुरु-चरणों में बैठे सस्वर आगमवाणी व भजन का उच्चारण कर रहे थे। नाड़ी-गति व शरीर-चेष्टाओं में कुछ परिवर्तन प्रतीत हो रहा था। स्थिति को समझते हुए श्रद्धेय श्री मानमुनिजी म.सा. (वर्तमान उपाध्याय प्रवर) एवं श्रद्धेय श्री हीरामुनीजी म.सा. (वर्तमान आचार्यप्रवर) ने परस्पर आवश्यक विचार-विमर्श के पश्चात् उन महापुरुष की पावन-पवित्र विमल भावना के अनुसार,सांयकाल ४ बजे तिविहार के स्थान पर यावज्जीवन चौविहार संथारे के प्रत्याख्यान करवा दिये। अब आशाएँ क्षीण-क्षीणतर हो रही थीं। डॉ. एस. आरमेहता भी अपने आराध्य गुरुदेव के दर्शन हेतु उपस्थित हुए। उन्होंने शारीरिक लक्षणों को देखकर अवगत करवाया कि अब मुझे गुरुदेव का अंतिम समय प्रतीत होता है। • विनश्वर देह का त्याग
सूर्यास्त के पश्चात् सब सन्त गुरुदेव के पट्ट के चारों ओर खड़े प्रतिक्रमण कर रहे थे। श्रद्धेय श्री हीरा मुनिजी म.सा. (वर्तमान आचार्य श्री) ने आज पूज्य गुरुदेव को प्रतिक्रमण कराया। प्रतिक्रमण के समय संघ के अग्रगण्य | श्रावक प्रतिनिधि निरन्तर गुरु-चरणों में महामंत्र नवकार जप रहे थे। प्रतिक्रमण परिपूर्ण हुआ। सभी संतों ने आज अत्यंत भाव विह्वल बन असीम श्रद्धा-भक्ति व समर्पण के साथ अपने महामहिम गुरुवर्य, संयम-साधना के साकार स्वरूप उन पूज्यप्रवर के चरण सरोजों में अनुक्रम से अपनी वन्दना समर्पित की। श्वास अब रुक-रुक कर आ रहा था, गुरुदेव के हाथ-पैर ठण्डे हो रहे थे, पर उनका सीना व मस्तिष्क गर्म था। आँखों की पुतलियाँ स्थिर थीं, अन्तत: लम्बी सांस के साथ एक हिचकी आई और उस मृत्युंजयी महापुरुष ने नश्वर देह का त्याग कर दिया।
इस प्रकार चतुर्थ तीर्थंकर देवाधिदेव अभिनन्दन प्रभु के मोक्ष-कल्याणक दिवस प्रथम वैशाख शुक्ला अष्टमी (वि.सं.२०४८) रविवार दिनांक २१ अप्रेल, १९९१ को रात्रि ८ बज कर २१ मिनट पर १३ दिवसीय तप संथारे के साथ रवि पुष्य नक्षत्र व उच्च सूर्य आदि उत्तमोत्तम ग्रह स्थिति में अध्यात्म आलोक का वह दिव्य प्रभा-पुंज बुझ गया। अनन्त आस्था का केन्द्र, लाखों भक्तों का भगवान्, संघ का सरताज, सबको भाव विह्वल छोड़ चला गया। जिनकी