Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ___जब श्रद्धेय श्री मानमुनिजी म.सा. एवं श्रद्धेय श्री हीरामुनिजी म.सा. संथारे की विधि पूर्ण करा रहे थे तब उपस्थित चतुर्विध संघ के सदस्य स्तब्ध होकर इस भव्य प्रकृष्ट आरोहण को अपलक निहार रहे थे। उन महापुरुष के दिव्य आभामय मुखमण्डल पर अलौकिक आत्म-ज्योति प्रकट हो रही थी तो अपने अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति का परमतोष भी झलक रहा था। उनके रोम-रोम में अपार उत्साह था। वस्तुत: दृढ़ संकल्पव्रती, श्रमण श्रेष्ठ की चिर संचित अन्तर्भावना आज साकार होने जा रही थी।
“जग मरण से डरत है मो मन परमानन्द।
कब मरस्यां कब भेंटस्या, सहजे परमानन्द ।।" श्रद्धेय मान मुनिजी म.सा. द्वारा विधि पूर्ण कराये जाने के बाद जब आजीवन (तिविहार) आहार-त्याग के प्रत्याख्यान का पाठ श्रवण कराया जा रहा था, भगवन्त ने पूर्ण सचेतन सजग अवस्था में स्वयं अपने श्रीमुख से 'वोसिरामि' शब्द का उच्चारण कर संथारा ग्रहण कर लिया। साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका सभी भारी मन से आत्मसमाधिस्थ अपने आराध्य उन युग-निर्माता, युग-मनीषी, युग-प्रभावक गुरुवर्य को नत मस्तक हो, भाव-विह्वल हो, नमन कर रहे थे। जीवन के उषा काल में ही साधना करते जिस महापुरुष ने भेद-ज्ञान का साक्षात्कार कर यह अनुभव कर लिया था कि यह शरीर 'मैं' नहीं, 'मैं' उसमें विराजित आनन्दघन
आत्मा हूँ, तभी से उनकी समग्र साधना निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती गई। आज लगता है, उनकी समूची संयम-जीवन की वह सुदीर्घ साधना इस समाधिमरण के लिए की गई तैयारी थी। योजनाबद्ध रीति से संथारा ग्रहण करने का यह शताब्दी का अप्रतिम उदाहरण था। पहले दवा बन्द, फिर अन्नाहार बन्द, फिर पेय बन्द एवं सम्बन्धित सम्प्रदायों के प्रमुख श्रमण वरेण्यों को क्षमा याचना के पत्रों के साथ चतुर्विध संघ एवं प्राणिमात्र से क्षमायाचना पूर्वक तेले की तपस्या - यह था संलेखना का सच्चा स्वरूप और संथारे की भूमिका।
सबका आग्रह उन्हें रोक न सका, शिष्यों के स्नेह व भक्तों की भक्ति भी उन्हें बांध नहीं सकी, क्योंकि वे निकट भवी महासाधक तो सभी बन्धनों से मुक्त होने की ओर सतत अग्रसर थे। इस कठोर साधना पर आगे बढ़ना उनके अनन्त मनोबल का ही तो परिचायक है। पूज्य भगवन्त तो अन्तज्योति जगा यही सोच रहे थे
मैं हूँ उस नगरी का भूप, जहाँ नहीं होती छाया-धूप। दृश्य जगत पुद्गल की माया, मेरा चेतन रूप। पूरण गलन स्वभाव धरे तन, मेरा अव्यय रूप ।। मैं न किसी से दबने वाला, रोग न मेरा रूप।
'गजेन्द्र' निज पद को पहचाने, सो भूपो का भूप॥ यह तन मेरा नहीं, यह दुर्बलता, यह अशक्तता, ये रोग मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, मैं तो अविनाशी, अजर, | अमर शुद्ध शाश्वत आत्मा हूँ, मुझे तो मेरा स्वरूप प्रकट करना है, सभी बन्धनों को तोड़ कर मुक्त होना है।
आत्मसमाधिस्थ पूज्य चरितनायक के सूर्य सम दैदीप्यमान चेहरे से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो गुरुदेव अपने अप्रतिम आत्म-बल से कराल काल पर विजय-वैजयन्ती फहराने को इस अध्यात्म-संग्राम में सन्नद्ध होकर कर्म-शत्रुओं को परास्त करने को कटिबद्ध हैं। वे अपनी सम्पूर्ण शक्ति से निरन्तर अपनी आत्मा को ऊँचा उठा कर मुक्तिश्री की ओर बढ़ रहे थे। वीतरागता की उच्च स्थिति पाने को समुत्सुक इन महाश्रमण को सहयोग देने के लिए सन्तवृन्द एवं सतीवृन्द भवभयहारिणी जिनवाणी के आगम पाठ एवं अध्यात्म-स्वरूपबोधक भजन पूज्य गुरु-चरणों में सुनाने को उद्यत थे।