Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं आभा दृष्टिगत हो रही थी। बार-बार पूछने पर निरतिचार संयम-साधना के धनी उन पूज्यवर्य ने इतना मात्र कहा-"भाई , मैं बहत बोल चुका। अब तो करने का है। मेरी साधना में विघ्न मत डालो।" गुरुदेव के इस वाक्य ने सब लोगों के विचारों को और दृढ़ बना दिया।
सन्तगण ने सारी स्थिति उपस्थित प्रमुख श्रावकों के समक्ष रखते हुए कहा कि ७० वर्ष की सुदीर्घ निरतिचार विमल संयम साधना में जिस तन ने पूज्य गुरुदेव का साथ दिया है, जो शरीर इस साधक महापुरुष की आदर्श साधना एवं तप तेज से दीप्त तथा तेजोमान हुआ है, उस शरीर को पूज्यवर्य की अन्तिम साधना का साथी बना रहने दें। यही भावना स्वयं पूज्यवर्य की है एवं हम लोगों की भी यही भावना है। परन्तु संघनायक के इस तन पर समूचे चतुर्विध संघ का अधिकार है। अतः आप सामूहिक रूप से जो निर्णय करना चाहें कर हमे अवगत करायें, किसी भी अन्तिम निर्णय के पूर्व आप लोगों की सहमति अपेक्षित है। श्रावकगण ने भी समग्र स्थिति पर गहन विचार-विमर्श कर यही सम्मति प्रकट की कि हमें पूज्य भगवन्त की भावना को सर्वोपरि स्थान देते हुए चिकित्सकों की राय से | इंजेक्शन, ग्लूकोज अथवा आहार नलिका नहीं लगवानी है।
चिकित्सक दल को निर्णय से अवगत कराया गया। सभी डॉक्टर सुनकर चकित रह गये। शरीर की व्याधियों का उपचार करने वाले चिकित्सकों को भला क्या पता कि संतों में अद्भुत संत वे परमयोगी तो अब तन के ममत्व से परे हो चुके हैं तथा भवरोग का उपचार करने में सन्नद्ध हैं। धन्य, धन्य है इन महापुरुष का धैर्यबल, अनुपम है इनकी त्यागवृत्ति और दृढ़ है इनका आत्मबल । सभी चिकित्सकगण सहज नत मस्तक हो, गुरु गुणगान करते हुए अपने-अपने गन्तव्य स्थान लौट गये। कुछ भावुक भक्तों को यद्यपि अत्यन्त निराशा थी, पर आराध्य गुरुदेव के अटल वज्र संकल्प के आगे वे मौन एवं नत मस्तक थे। भक्तों का आवागमन निरन्तर बढ़ता जा रहा था। आने वाला हर दर्शनार्थी जब गुरुदेव के स्वास्थ्य को देखता एवं उनकी भावना को सुनता तो चिन्तित मुद्रा में दीर्घनिश्वास ले यही कह उठता
'पूज्यराज को यह क्या अँच गई? अन्नाहार क्यों बंद कर दिया ? दवा क्यों नहीं लेते ? उपचार में इतनी निस्पृहता क्यों ? जीवन भर जिस महापुरुष ने तप, त्याग व संयम साधना में लेशमात्र कमी नहीं रखी, इस रुग्ण अवस्था में वे किस कमी को पूरा करना चाहते हैं? अति भावुक होने पर वे संतों से उलाहना भरे शब्दों में पृच्छा भी करते, पर जब उन्हें गुरुदेव के पवित्र संकल्प से कि 'जीवन के संध्याकाल में मैं कहीं खाली हाथ न चला जाऊँ से अवगत कराया जाता तो वे सहज नत मस्तक हो उस महापुरुष के प्रति श्रद्धानत हो जाते। पूज्यपाद की वह अत्युत्कृष्ट निर्मल भावना श्रद्धासिक्त भक्तों के सभी प्रश्नों का एकमात्र समाधान थी। गुरुदेव की भावना के आगे तो कोई प्रश्न हो भी कैसे सकता है।
सभी शिष्यगण अहर्निश सेवा-परिचर्या में लगे थे। भक्ति-भावना से ओत-प्रोत गुरुभक्त श्रावकगण अपना-अपना व्यवसाय, सुख-सुविधाएँ छोड़, गुरुदेव की सेवा में ही उपस्थित रहने लगे। किसी का भी मन घर लौटने को नहीं होता। डॉक्टर एस. आर. मेहता, डॉक्टर राकेश मेहता एवं वैद्य सम्पतराज जी मेहता पूर्ण श्रद्धा-भक्ति व विवेक के साथ मर्यादानुसार उपचार में सन्नद्ध थे। परन्तु गुरुदेव अपनी मस्ती में मस्त थे। ८ अप्रेल ९१ को गर्मी के बावजूद सायंकाल चौविहार-त्याग के समय जल भी अत्यन्त अल्पमात्रा में ही लिया। • तेले की तपस्या । ९ अप्रेल ९१ मंगलवार प्रथम वैशाख कृष्णा दशमी को सन्तों के द्वारा आग्रहपूर्ण निवेदन किए जाने पर भी )