Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
२९७
आपने पेय स्वीकार नहीं किया और आपने उपवास का संकल्प कर लिया । कृष्णा दशमी को आपके वर्षों से मौन | रहता था। इस दिन पूज्यवर वर्षों से चिन्तामणि भगवान पार्श्वनाथ का जप - स्मरण एवं एकान्त ध्यान साधना के साथ आत्मरमण करते थे। दूसरे दिन १० अप्रेल को भी आपने पारणा नहीं कर बेला तप कर लिया । ११ अप्रेल को सन्तों को पारणक की आशा थी, किन्तु वह भी पूर्ण नहीं हुई। आचार्य श्री मन ही मन अन्तिम मनोरथ की उत्कृष्ट | साधना के लिए दृढ़ संकल्प कर चुके थे । ७० वर्ष की सुदीर्घ संयम साधना में आपने एक से अधिक बार तेले की तपस्या नहीं की थी, किन्तु यह द्वितीय तेले का तप अद्वितीय लक्ष्य की पूर्ति का मजबूत सोपान सिद्ध हो रहा था। शरीर की अशक्तता का कोई अर्थ नहीं था । आत्मशक्ति एवं मनोबल की विजय यात्रा अपना लक्ष्य पूर्ण करने की ओर अग्रसर थी। आपका मुख मण्डल अद्भुत दिव्य आत्म-तेज से ज्योतिर्मान था ।
तेले का तप पूर्ण होने पर सन्तों को आशा थी, कि अब गुरुदेव अवश्य ही पारणक कर लेंगे, परन्तु १२ अप्रेल ९१ को सूर्य की किरणें तो उदित हुईं, किन्तु पारणक कराने की सन्तों की अभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकी। सुशीला भवन के बाहर दर्शनार्थियों की अपार भीड़ थी। हर कोई एक दूसरे से पूछ रहे थे- गुरुदेव ने पारणा किया या नहीं ? सभी संतमुनिवृन्द, महासती - मण्डल एवं संघ के कार्यकर्ताओं का मन अधीर हो रहा था। सभी ने पुनः गुरुचरणों में निवेदन किया कि भगवन् ! आज तो अब पारणक करावें । पारणक के लिये पुनः पुनः निवेदन करने पर शारीरिक | चेष्टाओं से स्पष्ट इनकार कर दिया। आचार्यप्रवर से पृच्छा करने पर उन्होंने अपने स्मित मुख - मण्डल से सहज ही संथारा ग्रहण करने की भावना व्यक्त की । किन्तु सबको यह आसानी से स्वीकार्य कहाँ था? काल-चक्र अबाध गति से अपने कदम बढ़ाता जा रहा था तो वे मृत्युंजयी महापुरुष उस पर विजय श्री का वरण कर | मरण को अपने साधक जीवन का आदर्श बना, एक नया कीर्तिमान रच रहे थे। सैंकड़ों साधक अपने | जीवन का निर्णय लेने जिन श्री चरणों में उपस्थित हुए, आज उसी नियामक के जीवन की निर्णायक घड़ी सबके सामने थी । निर्णय तो वह महासाधक कभी का ले चुका था, संघ को तो मात्र उस पर अपनी स्वीकृति (चतुर्विध संघ की स्वीकृति) की मुहर लगानी थी । अन्ततः श्रद्धेय श्री मान मुनिजी म.सा. श्रद्धेय श्री हीरा मुनिजी म.सा.प्रभृति सभी संतगण, वहाँ उपस्थित रत्नवंशीय साध्वी मण्डल व संघ के अग्रगण्य श्रावक परस्पर विचार-विमर्श के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पूज्य भगवन्त ने जीवनपर्यन्त हमारे जीवन को आगे बढ़ाने में, संघ एवं जिनशासन की सेवा करने में हमारा मार्गदर्शन किया है, उन महापुरुष ने जीवन मे सदैव दिया ही दिया है, कभी कुछ माँगा नहीं, आज जीवन की इस सांध्य वेला में मांगा भी है तो पंडित मरण में सहयोग । अतः इस ऊहापोह की घड़ी में अपने हृदय को मजबूत कर गुरुदेव की भावना के अनुरूप उनके अभीष्ट पाथेय की प्राप्ति में सहयोग देना ही हमारा एक मात्र कर्त्तव्य है ।
संथारा-समारोहण
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गुरुदेव संथारा करने के लिए तत्पर थे। सभी अवाक् थे- अपने अन्तिम मनोरथ 'संथारा' की कितनी प्रबल अदम्य आकांक्षा, कैसा दृढ़ अभिनिश्चय, जीवन से कितनी निस्पृहता ! त्याग के प्रबल आग्रह के समक्ष राग को झुकना ही पड़ा। एक ओर गुरुदेव के अब अधिक सान्निध्य से वंचित हो जाने का द्वन्द्व, तो दूसरी ओर गुरुवर्य की साधना के दिव्य शिखर पर आरोहण की प्रसन्नता थी । अन्ततः हर्षमिश्रित भारी मन से चतुर्विध संघ ने गुरुवर्य की प्रकृष्ट भावना का समादर करते हुए संथारा ग्रहण करने की सहमति प्रदान कर दी।