Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं सतंगण-भगवन् ! हम इतना निवेदन कर रहे हैं। थोडा सा जल ले लें। गुरुदेव-साधना जितनी निर्विघ्न बनाओगे, जितना धर्म में दृढ़ बनाओगे, उतना ही आत्मिक संतोष का विषय है। संतगण-एक बार जल ले लो भगवन् ! गुरुदेव-इरी मनवार मत करो, ज्ञान, दर्शन, चारित्र री मनवार करो। संतगण-भगवन् ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र के पालन में शरीर की आवश्यकता है और शरीर के लिये खुराक
की। गुरुदेव-अरे भाई, जवाब सवाल की बात नहीं, म्हारी आत्मा ने आत्मभाव में स्थिर करो।
अपराह्न चार बजे रस पीने का बार-बार आग्रह करने पर भी पूज्य गुरुदेव मना करते रहे। तब संतों ने पूछा-“भगवन् ! आपकी भावना क्या है ?" तो पूज्य चरितनायक ने यही फरमाया-आहार, शरीर छोड़ने
की।
पुनः लगभग ४.२० बजे संतों ने भगवन्त को करबद्ध निवेदन करते हुए आग्रह किया-“भगवन् ! आप दवाई व आहार लिरावें । भगवन् ! आपकी जो भी रुचि हो, फरमावें। हम आपकी रुचि के माफिक ही खयाल रखेंगे। हलका आहार अथवा पेय जो भी रुचिकर हो, फरमावें ।”
प्रत्युत्तर में गुरुदेव बोले-“रुचि भी नहीं और आयु भी नहीं है।" पुनः संतों ने लगभग ४.४५ बजे | गुरुदेव को पूछा - भगवन् ! आपको जैसे साता हो, वैसा फरमावें।" गुरुदेव एक शब्द ही बोले - “समाधि
प्रश्नोत्तर काल में पूज्य गुरुदेव भगवन्त का मुखमंडल आत्म-ज्योति से दीप्त हो रहा था। सब सन्त उन तपोपूत महाश्रमण के उच्च आत्मिक भावों से परिपूर्ण उत्तर से निरुत्तर थे। युवावस्था में स्वयं द्वारा रचित रचना के भाव उनके जीवन के इस संध्याकाल में स्पष्ट नजर आ रहे थे
“रोग शोक नहीं मुझको देते, जरा मात्र भी त्रास ।
सदा शांतिमय मैं हूँ, मेरा अचल रूप है खास ॥" उस संवाद के बाद एक दिन बीता, दो दिन बीते, गुरुदेव लगभग मौन ही रहे, किसी से भी कुछ नहीं बोले ।। सब चिन्तित थे, पर गुरुदेव सब चिन्ताओं से परे अपनी उसी चिरपरिचित मंद मुस्कान के साथ समाधिभाव में लीन रहते। उनके प्रशस्त शुभ्र दिव्य भाल पर वेदना की हल्की रेखा भी दृष्टिगत नहीं हुई। किन्तु ब्रह्म तेज से दीप्त मुखाकृति आकर्षित कर रही थी। भास्वर आँखों में वही सौम्य, स्नेह एवं करुणा का पारावार उमड़ता हुआ हर किसी को आप्लावित कर रहा था।
इसी बीच दिनांक २३ मार्च ९१ को श्री देवेन्द्रराजजी मेहता सपरिवार दर्शनार्थ आये। श्रद्धालु भक्त आत्म-भाव मे लीन अपने आराध्य गुरुदेव को मन,वचन, काया से सम्पूर्ण श्रद्धा से अभिभूत हो नमन कर रहा था तो आराध्य भगवन्त अपने इस संघसेवी श्रावक को पूर्वजों का स्मरण दिलाते भोलावण के रूप में बोल रहे थे। पूज्य | गुरुदेव ने मेहता जी से कुछ देर तक बातचीत की। सन्त आश्वस्त बने कि गुरु भगवन्त के न बोलने का कारण उनकी मौन साधना है न कि स्वास्थ्य की कोई गड़बड़ है। __ पूज्य गुरुदेव को इस तरह आत्म-भाव में लीन देखकर प्रतीत होता था कि "जिन नहीं पण जिन