Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
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लिए नये नहीं हैं। पूज्य आचार्य श्री विनयचन्द्र जी म.सा. ने १४ वर्षों तक लगातार यहाँ विराजकर जैन संघ को मजबूत किया। वे एक सम्प्रदाय के आचार्य थे, परन्तु उनका जीवन सम्प्रदायवाद से परे था। पंजाब, मालवा की सम्प्रदायों के सन्तों के साथ पं. रत्न श्री ज्ञानचन्दजी म.सा. की परम्परा, बाबा जी पूर्णचन्द्र जी म, इन्द्रमल जी म. | आदि विभिन्न परम्पराओं के विशिष्ट संत महीनों तक उनकी सेवा में बैठकर ज्ञान- ध्यान की आराधना करते रहे । पूज्य माधवमुनि जी म. ने आचार्य श्री विनयचन्द्र जी म.सा. की सेवा में रहकर ज्ञान-ध्यान की आराधना की। दोनों पूज्य | सन्त एक साथ विराजे । दोनों की काया भिन्न थी, परन्तु मन में वैचारिक समरूपता तथा हृदय में आत्मीयता व साहचर्य भाव था ।
आचार्य श्री ने संघ-सौहार्द की सुदृढ़ परम्परा के निर्वाह पर बल दिया । खरबूजे और नारंगी के स्वरूप के माध्यम से प्रेरणा देते हुए आपश्री ने फरमाया कि संघ के सदस्यों को चाहिए कि वे बाहर से नारंगी की भांति एक प्रतीत हों तथा भीतर से खरबूजे की तरह एक हों। इस प्रकार एक रूप एवं एक रस होने पर ही 'संघ' शासन की जिम्मेदारी की भूमिका तन्मयता से निभा सकेगा। मांगलिक - श्रवण के लिए उत्सुक अपार जनमेदिनी को आचार्य श्री | ने मांगलिक प्रदान किया। महासती श्री शान्तिकँवर जी म.सा. आदि ठाणा ४ का २१ जुलाई को चातुर्मासार्थ बारह गणगौर स्थानक में प्रवेश हुआ ।
आचार्य श्री के सान्निध्य में ध्यान एवं मौन -सामायिक शिविरों का आयोजन, दया की पंचरंगियां, | अतिविशिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्तियों का दर्शनार्थ आगमन उल्लेखनीय रहे। फ्रांस के विद्वान् डॉ. जे. एन. मोनसुयर, आचार्य श्री के संयम एवं त्यागमय जीवन से अत्यंत प्रभावित हुए उन्होंने जैन-धर्म-दर्शन पर आचार्य श्री से विचारों का आदान-प्रदान किया। अंग्रेजी - हिन्दी रूपान्तर श्री उमरावमल जी ढड्डा ने | किया। प्रसिद्ध वैष्णव संत श्री ओंकारानन्द जी स्वामी भी आपके दर्शन हेतु पधारे। श्री दिनेन्द्र कुमार जी छाजेड़ जयपुर ४२ वर्ष की तरुणायु में आजीवन शीलव्रत का आदर्श प्रस्तुत किया । सवाईमाधोपुर से युवक संघ के ३५ सदस्यों ने उपस्थित होकर सामायिक- स्वाध्याय का नियम ग्रहण किया।
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इस चातुर्मास काल में पर्वाधिराज पर्युषण की महावेला में महान् अध्यवसायी श्री महेन्द्रमुनि जी म.सा. ने १० दिवसीय एवं तपस्वी श्री प्रकाश मुनि जी म.सा. ने १२ दिवसीय तप किया। दीर्घ तपस्विनी श्रीमती इचरज कंवरजी | लुणावत ने ७५ उपवास किए, १५ मासक्षपण तप हुए, बेले - तेले की तपस्याएँ अगणित हुईं, १०० अठाई तप हुए, रत्न व्यवसायी श्री पूनमचन्दजी बडेर ने ६५ दिन की मौन साधना जपसंवर के साथ की। कुशलचन्द जी हीरावत ने | अपना व्यवसाय छोड़कर संवर-साधना के साथ पूरे चार माह मौनव्रत रखा। इस प्रकार अनेकविध तपस्वियों ने | लालभवन को तपोभवन बना दिया। अधिकांश तपस्वियों के पारणे बिना आडम्बर के सादगीपूर्वक हुए। पं. रत्न श्री मानमुनि जी ( वर्तमान उपाध्याय प्रवर), मधुर व्याख्यानी श्री हीरामुनिजी (वर्तमान आचार्य श्री ) आदि सन्तों के प्रवचनामृत से जन-जन प्रभावित थे। उनके व्याख्यान श्रावक-श्राविकाओं को सत्पथ पर अग्रसर करने में जादू सा कार्य करते थे । कोई सूक्तियों, दोहों, पद्यों और लघु कथाओं के माध्यम से गहन आध्यात्मिक विषय को समझाने में | निपुण रहे तो कोई स्वरचित भजनों, गीतिकाओं और भाव भरे उद्बोधनों से सरलता और सहजता को अंगीकार करने का पाठ पढाते रहे । कोई धैर्यपूर्वक सधी हुई वाणी से द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग के मर्म को स्थानीय भाषा प्रकट करने में सिद्धहस्त रहे तो कोई उपमा, उत्प्रेक्षा की थाह को भांपते हुए, देश, काल और | परिवेश के अनुकूल सुमधुर और प्रभावशाली भाषा में अपने चिन्तन को मुखरित कर जन-जन को आत्म विभोर करते रहे। साध्वी मंडल भी पीछे नहीं रहा। गुरु हस्ती की कृपा का प्रसाद अद्भुत है। पात्र के भीतर छिपी योग्यता