Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
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बोल रहा हूँ, फिर कदाचित् नहीं बोल पाऊँ?" मुनिश्री श्रद्धाभिभूत हो विचारमग्न हो गए। १२ मार्च ९१ को लगभग १२ बजे संतों ने गुरु चरणों में सविनय साञ्जलि शीष झुकाकर निवेदन किया-“भगवन् ! शरीर के लिये आहार आवश्यक है, अतः आप थोड़ा आहार ग्रहण करने का ध्यान देने की कृपा करें ।” पर उन महामनीषी की दृष्टि तो अब || इस तन के लिए आवश्यक आहार की ओर नहीं वरन् परलोक के भाते की ओर ही थी। • साधना के शिखर की ओर
___ अपने हृदयगत भावों को प्रकट करते हुए गुरु भगवन्त बोले- “क्या मुझे खाली हाथ भेजोगे? मुझे खाली हाथ मत भेजना, यह मेरी एक मात्र अंतिम इच्छा है।” उनके पवित्र हृदय के उस दृढ़ संकल्प से सभी हतप्रभ थे। देह! के प्रति कैसी निस्पृहता ! न तन का मोह, न आहार का मानस, न दवा की मंशा, एकमात्र अभिलाषा थी साधक के | अंतिम मनोरथ की सिद्धि कर कृतकृत्य होने की। अपने जीवन के इस सन्ध्याकाल में भी चरितनायक सतत । जागरूकतापूर्वक अपनी संयम-चर्या में निरत रहते। यदि संघ-संबंधी कोई आवश्यक बात ध्यान में आती तो वे ज्येष्ठ संतों एवं प्रमुख श्रावकों को संकेतात्मक भाषा में ध्यान दिला देते, शेष समय ध्यान, जप एवं स्वाध्याय-साधना | द्वारा अपनी अन्तज्योति ज्योतित रखते।
१३ मार्च ९१ को सायंकाल प्रतिक्रमण से पूर्व ६.२५ बजे उस प्रतिपल सजग साधक, संयम की साकार प्रतिमूर्ति आचार्य भगवन्त ने अपनी सरलता, विनम्रता, समर्पण एवं महानता का आदर्श उपस्थित करते हुए अपने द्वारा दीक्षित संतों के समक्ष कहा-"मैं अपने गुरु आचार्य भगवन्त की साक्षी से पूर्व के दोषों की निन्दा करता हूँ, और नये महाव्रतों में आरोहण करता हूँ।" गुरुदेव के हृदय से निकले इन पावन निर्मल शब्दों ने सभी शिष्यों को आश्चर्य में डाल दिया कि जिन महापुरुष ने संयम-पर्याय के प्रतिज्ञा पाठ के साथ ही अद्यावधि निरतिचार संयम का पालन किया, जिनका संयम युगों-युगों तक साधकों के लिये आदर्श रूप में पथ आलोकित करता रहेगा, उन महापुरुष को महाव्रतों में नवीन आरोहण जैसी क्रिया की क्या आवश्यकता? पर यही तो युगमनीषी, युगप्रर्वतक महापुरुषों की महानता होती है, जिनकी मेरु समान ऊँचाई व सागर सम गहराई की थाह पाना सामान्य जनों के सामर्थ्य के बाहर की बात है। उन्होंने आत्मिक-विकास की उस उच्च भूमि पर आरोहण कर लिया था, जो वीतरागता की ओर अग्रसर होती है।
यही नहीं आचार्य प्रवर ने सभी प्राणियों से क्षमायाचना करते हुये सभी प्रमुख सन्त सतियों की सेवा में | क्षमायाचना के पत्र प्रेषित कराये। जिसका प्रारूप कुछ इस प्रकार था
“मैं जीवन के संध्याकाल में चल रहा हूँ। मेरा स्वास्थ्य उतना स्वस्थ एवं समीचीन नहीं चल रहा है ।। संयम-जीवन के पिछले कई वर्षों से मेरा आपसे प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से निकट सम्पर्क व प्रेम सौहार्द सम्बन्ध रहा है। कई बार मिलने एवं विचार-विमर्श के प्रसंग आए हैं। इस बीच न चाहते हुये भी मेरे किसी व्यवहार से आपको व आपके अन्तेवासी संत-सतीवृन्द को कोई भी कष्ट हुआ हो तो मैं आत्म-शुद्धि हेतु हार्दिक क्षमायाचना करता हूँ। संघ की व्यवस्था श्री मानमुनि जी एवं श्री हीरामुनि जी संभालेंगे। उनके साथ भी आपका वैसा ही सौहार्द सम्बन्धं बना रहे , इसी भावना के साथ एक बार पुन: क्षमायाचना।"
१४ मार्च ९१ को आचार्य प्रभु अनायास ही प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में तीन चार बजे के लगभग गंगवाल भवन के पिछवाड़े के बरामदे में पधारे और संतों के साथ छज्जीवनी का स्वाध्याय किया। जप, ध्यान, भक्तामर