Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं २७६ शिविर में साधकों को संबोधित करते हुए चारित्रनिष्ठ पूज्य आचार्य श्री ने फरमाया –“स्वाध्यायी ज्ञान की साधना करता है, पर ज्ञान के साथ क्रिया की साधना भी जरूरी है। स्वाध्यायी अच्छे वक्ता, लेखक एवं प्रवचन व भाषणकला में निपुण हो सकते हैं , परन्तु उनमें आचरण भी उसी के अनुरूप होना आवश्यक है। साधक साधना के द्वारा |आचरण की रूपरेखा तैयार करते हैं तथा कषाय, इन्द्रिय आदि को वश में कर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं। सभी साधकों को साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ना है। ध्यान एवं मौन की साधना के साथ यदि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना करेंगे तो आपकी आत्मा का कल्याण होगा।"
पर्यषण पर्व पर आचार्य श्री के उद्बोधन का लाभ सभी धर्मावलम्बियों ने लिया। आपने फरमाया कि “दूर-दूर से सन्त-सती-सेवा में आने वाले लोगों को अपने आगमन के उद्देश्य का विचार-चिन्तन करना चाहिए। सन्त-जीवन का नमूना अपने जीवन में उतारने से ही यहाँ आने का आपका प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा।"
___ “पर्युषण लौकिक पर्व नहीं है, इन दिनों को मेला नहीं समझकर जप-तप के साथ मनाने में ही सार्थकता है। तपस्या के साथ त्याग भी जरूरी है। तपस्या करने वाले भाई-बहन बाहरी आडम्बरों से दूर रहें। तपस्या के प्रसंग पर मायरा आदि न लें । बहिनें स्वर्णजटित आभूषणों से सुसज्जित होकर तपस्या न करें। तपस्या को प्रदर्शन का रूप न दें। तपस्या के साथ कुछ त्याग करें। स्वधर्मी भाइयों को सहयोग दें। दिखावे के भाव से की गई तपस्या का पूरा लाभ नहीं मिलता। दिखावे में खतरा है तथा तपस्या में आत्मशान्ति है। पर्युषण के आठ दिनों में आठ मदों को छोड़ना है, आठ कर्मों की गांठ काटनी है। पाँच समिति तीन गुप्ति रूप आठ गुण प्रकट करने हैं।" _ “शुभप्रवृत्ति में दान भी श्रावकोचित गुणों का विकास करता है।” “जीवन में सरलता आवश्यक है, तभी धर्म टिकेगा और जीवन सफल बनेगा। किसान भी तो जुते हुए खेत में बीज डालता है, सड़क या खण्डहर में नहीं, क्योंकि वह अंकुरित नहीं होगा और व्यर्थ चला जायेगा।"
पूज्यपाद का चिन्तन था कि अहिंसा व अपरिग्रह एक दूसरे के पूरक ही नहीं वरन् अंगभूत हैं। अपरिग्रह का साधक ही अहिंसा को जीवन में उतार सकता है। तप का यथावत् आराधन भी अहिंसा का पालक ही कर सकता है। तप का मुख्य उद्देश्य हिंसादि पापों से विरत होकर जीवन में अहिंसा को प्रतिष्ठापित करना है। परिग्रह निवृत्ति व परिग्रह बढाने की लालसा रोकने की ओर, प्रदर्शन रोकना अनिवार्य व प्रथम कदम है। जितना-जितना प्रदर्शन रुकेगा, समाज में परिग्रह का महत्व घटेगा, और अधिक कमाने की दौड़ स्वतः कम होगी, येन केन प्रकारेण धन जोड़ने की अंधी दौड़ से मुक्त हो व्यक्ति स्वयं आरम्भ-परिग्रह की प्रवृत्तियों से परे होकर धर्म-साधना व तप से जुड़कर साधना-पथ पर अग्रसर होगा। परिग्रह का ममत्व कम कर व्यक्ति स्वयं दुःखी जनों को सहयोग देने व दान देने की ओर आगे बढ़ेगा, किसी प्रेरणा की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। ___आचार्य श्री ने नशाबंदी कराने, हिंसा एवं व्यभिचार को रोकने, बूचड़खाने नहीं खुलने देने, श्रावकों को अपनी शक्ति तथा मंत्रिजन को अपने प्रभाव का उपयोग करने की प्रेरणा की। इस अवसर पर राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री श्री अशोक जी गहलोत, देवस्थान विभाग मंत्री श्री राजेन्द्र जी चौधरी और सहकारिता मंत्री श्री रघुनाथ जी विश्नोई ने आचार्य श्री के दर्शन एवं प्रवचन-श्रवण का लाभ लिया। आचार्यश्री के सान्निध्य में ११ नवम्बर को त्रिदिवसीय 'जैन सिद्धान्त प्रचार-प्रसार-संगोष्ठी' का शुभारम्भ हुआ, जिसमें ४० विद्वानों पत्रकारों आदि ने भाग लिया। विद्वत् संगोष्ठी में आए सुझावों के क्रियान्वयन पर भी बल दिया गया कि विदेशी भाषाओं में जैन आगमों